नागमती वियोग (तीन)
nagamti wiyog (teen)
चढ़ा असाढ़ गँगन घन गाजा। साजा बिरह दुंद दल बाजा॥
धूम स्याम धौरे घन धाए। सेत धुजा बगु पाँति देखाए॥
खरग बीज चमकै चहुँ ओरा। बुंद बान बरिसै घन घोरा॥
अद्रा लाग बीज भुइँ लेई। मोहि पिय बिनु को आदर देई॥
ओनै घटा आई चहुँ फेरी। कंत उबारु मदन हौं घेरी॥
दादुर मोर कोकिला पीऊ। करहिं बेझ घट रहै न जीऊ॥
पुख नछत्र सिर ऊपर आवा। हौं बिनु नाँह मँदिर को छावा॥
जिन्ह घर कंता ते सुखी तिन्ह गारो तिन्ह गर्ब।
कंत पियारा बाहिरें हम सुख भूला सर्ब॥
आषाढ़ का महीना आ गया। मेघ आकाश में गरजने लगा। विरह ने युद्ध की तैयारी की है और उसकी सेना आ पहुँची है। धुमैले, काले, धौले बादल सैनिकों की भाँति गगन में दौड़ने लगे। बगुलों की पंक्तियाँ श्वेत ध्वजा-सी दीखने लगीं। बिजली चारों ओर तलवार-सी चमकने लगी। मेघ बूँद रूपी बाणों की घनघोर वर्षा करने लगे। आद्र लगते ही बिजली चमककर भूमि छूने लगी। हा! मुझे प्रिय के बिना कौन आदर देगा! चारों ओर घटा झुक आई है। हे कंत, मदन ने मुझे घेर लिया है, मुझे बचाओ। दादुर, मोर कोयल, पपीहे बेध रहे हैं, अब घट में प्राण न रहेगा। पुष्य नक्षत्र सिर ऊपर आ गया है। मैं बिना स्वामी के हूँ। कौन मेरा मंदिर छवाएगा?
जिनके घर कंत हैं, वे सुखी हैं। उन्हीं को गौरव और गर्व है। मेरा प्यारा कंत बाहर है; इससे मैं सब सुख भूल गई हूँ।
- पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 344)
- रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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