नागमती वियोग (पंद्रह)
nagamti wiyog (pandrah)
तपै लाग अब जेठ असाढ़ी। भै मोकहँ यह छाजनि गाढ़ी॥
तन तिनुवर भा झूरौं खरी। मैं बिरहा गरि सिर परी॥
साँठि नाहिं लगि बात को पूँछा। बिनु जिय भएउ मूँज तन छूँछा
बंध नाहिं औ कंध न कोई। बाक न आव कहौं केहि रोई॥
ररि दूबरि भई टेक बिहूनी। थंभ नाहि उठि सकै न थूनी॥
बरसहि नैन चुअहिं घर माहाँ। तुम्ह बिनु कंत न छाजन छाँहाँ॥
कोरे कहाँ ठाट नव साजा। तुम्ह बिनु कंत न छाजन छाजा॥
अबहूँ दिस्टि मया करु छान्हिन तजु घर आउ।
मंदिल उजार होत है नव के अनि बसाउ॥
अब मेरे शरीर में विरह की जेठ-असाढ़ी तपने लगी है। मेरे लिए यह तपन दुःखदायी छाजन (एक रोग) हो गई है। शरीर पतला हो गया है, मैं खड़ी सूख रही हूँ। विरह की खान मेरे सिर पड़ी है। मेरे पास कुछ पूँजी नहीं है, अब स्नेह से बात कौन पूछेगा? बिना प्राण के मेरा शरीर मूँज की तरह छूँछा हो गया है। इस इस समय मेरा कोई बंधु नहीं है और कोई सहारा नहीं है। मुहँ से वाक्य नहीं निकलता, किससे रोकर अपना हाल कहूँ? रो-रोकर मैं दुबली हो गई हूँ और सब आश्रय से विहीन हूँ। जब थंभ नहीं रह गया तो थुनी कहाँ उठ सकती है? मेरे नेत्र आँसू बरसाते हैं जो सारे घर में टपकते हैं। हे कंत, तुम्हारे बिना न शोभा है, न छाँह या बचाव है। अरे, कौन कहाँ अब नया साज सजाएगा? हे कंत! तुम्हारे बिना अब वस्त्र शोभा नहीं देते।
- पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 355)
- रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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