नागमती वियोग (छह)
nagamti wiyog (chhah)
लाग कुआर नीर जग घटा। अबहुँ आउ पिउ परभुमि लटा॥
तोहि देखे पिउ पलुहै काया। उतरा चित्त फेरि करु माया॥
उए अगस्ति हस्ति घन गाजा। तुरै पलानि चढ़े रन राजा॥
चित्रा मिंत मीन घर आवा। कोकिल पीउ पुकारत पावा॥
स्वाति बंद चातिक मुख परे। सीप समुंद्र मोँति लै भरे॥
सरवर सँवरि हंस चलि आए। सारस कुरुरहि खँजन देखाए॥
भए अवगास कास बन फूले। कंत न फिरे बिदेसहि भूले॥
बिरह हस्ति तन, सालें खाइ करै तन चूर।
बेगि आइ पिय बाजहु गाजहु होइ सदूर॥
क्वार लग गया। संसार में जल घटने लगा। हे प्रिय, परदेश में बस रहे हो। अब तो घर लौट आओ। हे प्रिय, तुम्हें देखकर मेरा सूखा शरीर फिर हरा होगा। अपना उतरा हुआ चित्त मेरी ओर करके (या उत्तरा से चित्रा के भीतर फिर) आने की दया करो। अगस्त्य के उदय होने पर हस्त नक्षत्र का मेघ गरजने लगा (या मेघ रूपी हाथी गरजने लगे)। राजाओं ने घोड़ों पर पलान रखकर युद्ध की तैयारी की (चित्रा का मित्र चंद्रमा मीन राशि में आ गया)। कोयल ने ‘पिऊ पिऊ' पुकारते हुए मानो अपना पति पा लिया है तभी तो वह चुप हो गई है। हे मेरे चित्त के मित्र, तुम भी तो घर आवो। स्वाति की बूँदें चातक के मुख में पड़ गई हैं। समुद्र में सीप मोतियों से भर गई हैं। सरोवर का स्मरण कर हंस लौट आए। सारस फिर कुरलने लगे, और खंजन दिखाई देने लगे। सब ओर मैदानों में कास के वन फूले हैं। पर हे कंत, तुम विदेश में ऐसे भूले कि फिर न लौटे।
- पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 347)
- रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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