नागमती वियोग (बारह)
nagamti wiyog (barah)
चैत बसंता होइ धमारी। मोहि लेखें संसार उजारी॥
पंचम बिरह पंच सर मारै। रकत रोइ संग बन ढारै॥
बूड़ि उठे सब तरिवर पाता। भीज मंजीठ टेसू बन राता॥
मौरें आँब फरें अब लागे। अबहुँ सँवरि घर आउ सभागे॥
सहस भाव फूली बनफती। मधुकर फिरे सँवरि मालती॥
मो कहँ फूल भए जस काँटे। दिस्टि परत तन लागहि चाँटे॥
भर जोबन एहु नारंग साखा। सोवा बिरह अब जाइ न राखा॥
घिरिनि परेवा व जस आइ परहु पिय टूटि।
नारि पराएँ हाथ है तुम्ह बिनु पाव न छूटि॥
चैत में वसंत की धमार होती है। पर मेरे लेखे संसार उजाड़ है। कोयल अपने पंचम राग में विरह के कारण पिउ-पिउ रटती हुई काम के पंच बाण मारती है। और रक्त के आँसू रोकर सारे वन में गिराती है। उन आँसुओं में डूबकर वृक्षों के नए पत्ते ताम्रवर्ण हो गए हैं। मंजीठ भी उनसे भीज गया है और वन का टेसू उनसे लाल हो गया है। बौरे हुए आम फलने लगे हैं। हे सभागे कंत, अब भी मेरा स्मरण कर घर आओ। वनस्पति सहस्रों रूपों में फूली है। भौंरे मालती का स्मरण कर लौट आए हैं। मुझे फूल काँटे जैसे लग रहे हैं। उनके देखते ही मेरे शरीर में चींटे लग जाते हैं। इस नारंग वृक्ष की शाख़ा में यौवन भर गया है (इसी से उसमें स्तन रूपी फल उठे हैं)। विरह रूपी सुग्गा उन्हें खाना चाहता है। अब रक्षा नहीं हो सकती।
- पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 352)
- रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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