फागुनि सीउ ‘चउग्गुन' कहा। ‘उछर पवन सतगुन’ होइ रहा॥
फाग ‘सराहउं लोरु जउ आवइ'। ‘सीउ मरति गियं लाइ जियावइ॥
घरि घरि रचहिं ‘डंडाहर' बारीं। आति सुहाग बहु राज दुलारीं॥
मुख ‘तंबोलु' चखि काजर ‘पूरहिं'। ‘आंकि मांग सिरि चीरि सेंदूरहिं॥
‘नाचहिं फाग होइ' झनकारा। 'तेहिं रस भीनीं सबइ सयंसारा'॥
रगत ‘रोइ मइं' तस ‘कइ' 'चोल चीर' रतनार।
कहि सुरिजन तोरि मैंनां ‘भइ होरी जरि' छार॥
मैनां कहती है कि फाल्गुन में शीत चौगुना कहा जाता है। पवन उच्छलित हो रहा था इसलिए वह सतगुना हो रहा था। मैं फागु की सराहना करती यदि लोरिक आ जाता और शीत से मरती हुई को गले से लगा कर जिला देता। बालिकाएँ घर-घर में डंडाहर (?) रचती थीं और बहुतेरी राजदुलारियाँ अत्यधिक सुहाग में थीं। मुख में वे ताम्बूल तथा आँखों में कज्जल पूरती थीं। वे मांगें अंकित करती और सिर के केश चीर कर उसे सिंदूरित करती थीं। वे फाग नाचती थीं, जिससे झंकार होती थी और उसी रस में भीनीं संसार में रमी थीं।
मैंने इस मास में इतना रक्ताश्रु गिराया कि मेरी चोली और मेरा चीर लाल हो गए। हे सुरजन, लोरिक से कह, ‘तेरी मैनां होली की आग में जल कर राख हो गई'।
- पुस्तक : चांदायन (पृष्ठ 348)
- रचनाकार : मुल्ला दाउद
- प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
- संस्करण : 1967
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