बारहमासा (भाद्रपद)
barahmasa (bhadrapad)
भादौं सघन धार बरिसाई। बीज लवइ अंधियर होइ जाई।
निसि अंधियारि भरम डर भारी। हिय दरकै हौं कंत बिसारी।
पिउ न आहि जेहि सरन लगाऊं। सेज भुअंगम भरी डराऊं।
दादुर रर औ मोर पुकारा। जिउ निकसइ अब खिन न संभारा।
जिउ पपिहा चख मघा सरेखा। दुल्लंभ कहेहु जो रे तुम्हें देखा।
लोयन गंग तरंग भए सेज भई घरनाउ।
करियई गुन बिनु डूबऊं कंत बिहाई आउ॥
भादों में सघन धारें बरसतीं, बिजली लपलपाती, और अँधेरा हो जाता। रातें अँधेरी थीं, जिनमें भ्रम और भारी डर होता था, मेरा हृदय फटता था क्योंकि प्रिय ने मुझे विस्मृत कर दिया था। प्रिय नहीं था, जिसकी शरण लगती। शैया भुजंगों से भरी हुई थी, जिससे मैं डर-डर जाती थी। दादुर रटते और मोर पुकारते थे, जिससे प्राण निकलने लगते थे और उस समय क्षण भर को भी जी न संभलता था। मेरा जीव पपीहा बन गया था और मेरे नेत्र मघा और श्लेषा हो गए थे। हे दुर्लभ! जो कुछ तुमने देखा है, वह प्रिय से कह देना। मेरे नेत्र गंगा की तरंगें हैं, और शैया उनमें पड़ी हुई घड़ों से बनी हुई डोंगी। करिया और गुण के बिना मैं डूब रही हूँ क्योंकि मेरी आयु कंत के द्वारा परित्यक्त हो चुकी है।
- पुस्तक : मृगावती (पृष्ठ 274)
- संपादक : माताप्रसाद गुप्त
- रचनाकार : कुतुबन
- प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
- संस्करण : 1968
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