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बारहमासा (आषाढ़)

barahmasa (ashaDh)

कुतुबन

कुतुबन

बारहमासा (आषाढ़)

कुतुबन

और अधिककुतुबन

    गज्जत गंगन असाढ़ जनावा। कुंजर जूह मेघ होइ आवा।

    चहुं दिसि उनइ बीज चमकाई। पिय संवरहु पावस रितु आई।

    घुमरैत बनिजारे आए। हम पिउ फुनि परदेसहि छाए।

    मारग रहा पंथ चलाई। अब जिउ घरी धीर धराई।

    मारग चलत आएउ नाहां। अब जलहर छाएउ जग माहां।

    दुल्लंभ सावन फिरि लगउ जग जलहर भरियांह।

    सुरपति बाहन भानु सुत मिलि कपोल रोयांह॥

    फिर गर्जना के साथ आषाढ़ आया और कुंजर-यूथ बनकर मेघ आकाश में पहुँचे। चारों और अवनिमत बिजली चमकने लगी। प्रिय, वर्षा ऋतु गई अब तो घूमने-फिरने वाले बनजारे भी गए हैं। वर्षा ऋतु भी गई है और तुम परदेश में ही छा रहे हो! यात्री सब वापस अपने घर गए हैं, क्योंकि मार्ग नहीं रह गया है। अब मेरा मन धीरज नहीं धर पा रहा है। जल-प्रवाह में मार्ग भी बह चला और जगत् में जल-भार छा गया है। दुर्लभ, सावन पुनः आया है और जगत् जल-भार से भर रहा है। इन्द्र-वाहन और भानु सुत ने मिलकर...।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मृगावती (पृष्ठ 283)
    • संपादक : माताप्रसाद गुप्त
    • रचनाकार : कुतुबन
    • प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
    • संस्करण : 1968

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