‘भादौं मांस निसि भइ' अंधियारी। 'रइनि डरावनि हउँ धनि' बारी॥
‘बिजुलि चमकि मोर हियरा' भागइ। मंदिरु नांह बिनु धइ धइ ‘लागइ॥
संग न साथी न 'सखी' 'सहेली'। ‘देखि फाट हिय मंदिर ‘अकेली’॥
'तेहि दुख' नैन फूट तस बहे। धरती पूरि सागर भरि रहे॥
निकरि ‘चलउं पउ' 'चली’ न जाई। ‘पुहमी' पूरि रहा ‘जलु' छाई॥
दुरजनु बचनु ‘संवन कई लोर' ‘परदेसह छाएउं'।
‘मइं ‘लाए नैननि दुइ बरिखा ‘सुरिजन' रोइ ‘बिहाएउं'॥
मैनां सुरजन से कहती है कि भादौं मास में अँधेरी रात आई, वह रात डरावनी थी और मैं बालिका थी। बिजली चमक कर मेरे हृदय को भग्न करती थी, और मेरा मन-मंदिर स्वामी के बिना जैसे पकड़-पकड़ कर मुझसे लग रहा था। न कोई संगिनी थी, न साथिनी, न सखी और न सहेली थी। घर में अपने को अकेली देखकर मेरा हृदय फट जाता था। उसी दुःख के कारण नेत्र जैसे फूट गए हों! वे बह निकले और धरती को पूरित कर सागरों को भर रहे। यदि मैं निकल चलती तो पैरों से चला न जाता; क्योंकि पृथ्वी पर चारों ओर जल छा रहा था। ऐ लोर, तुम दुर्जन का वचन मानकर विदेश में छाए हुए हो। ऐ सुरजन, दोनों नेत्रों में वर्षा को लगाए हुए मैंने भादौं महीना रो-रो कर व्यतीत किया।
- पुस्तक : चांदायन (पृष्ठ 342)
- रचनाकार : मुल्ला दाउद
- प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
- संस्करण : 1967
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