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बारहमासा (अश्विन)

baarahmaasa (.ashvin)

कुतुबन

कुतुबन

बारहमासा (अश्विन)

कुतुबन

और अधिककुतुबन

    आसिनि दरिस कांस बन फूले। खिडरिचु आए सारस बोले।

    उए अगस्त घटा जग नीरू। हौं भरि गांग पावउँ तीरू॥

    तेहि ऊपर बिरहा भा हाथी। गरजि झकोर कहां पिउ साथी।

    गरजत घन पिउ उरहि छपाऊं। सेज सूनि हौं भरमि डराऊं।

    जौ डर डरिउं भएउ निरजासी। मैमंता बन कया बिधांसी।

    कुंजर बिरह सरीर बन दलइ बिधांसइ खाइ।

    पिय गल गज्जहु सिंघ होइ कुंजर बिरह पराइ॥

    अश्विन दिखाई पड़ा तो बनों में कास फूल उठे। खंजन आए और सारस बोलने लगे। अगस्त्य तारक के उदित होने पर जगत् का जल घट गया, किंतु मैं कष्टों की भरी गंगा में थी और तट नहीं पा रही थी। उसके ऊपर विरह हाथी बना हुआ था, जो गर्जन करके मुझे झकोले दे रहा था। मेरे प्रिय और साथी, तुम कहाँ हो?” जब घन गरजता, मैं अपने हृदय को छिपा लेती और सूनी शैया में भ्रमित होकर डरने लगती। जब मैं डर से डरती, वह गज निर्वासित मद गिराने वाला हो उठता और वह मदमत्त मेरे काया-वन को विध्वंस कर डालता। विरह का कुंजर मेरे काया-वन को दलित कर रहा, विध्वंस कर रहा और खा रहा था। हे प्रिय! तुम सिंह होकर गर्जना करो जिससे विरह का यह कुंजर पलायन कर जाए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मृगावती (पृष्ठ 275)
    • संपादक : माताप्रसाद गुप्त
    • रचनाकार : कुतुबन
    • प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
    • संस्करण : 1968

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