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नागमती वियोग (पाँच)

naagamtii viyog (paa.nch)

मलिक मोहम्मद जायसी

मलिक मोहम्मद जायसी

नागमती वियोग (पाँच)

मलिक मोहम्मद जायसी

और अधिकमलिक मोहम्मद जायसी

    भर भादौं दूभर अति भारी। कैसे, भरौं रैनि अँधियारी॥

    मँदिल सून पिय अनतै बसा। सेज नाग भै धै धै डसा॥

    रहौं अकेलि गहें एक पाटी। नैन पसारि मरौं हिय फाटी॥

    चमकि बीज घन गरजि तरासा। बिरह काल होइ जीउ गरासा॥

    बरिसै मघा झँकोरि झँकोरी। मोर दुइ नैन चुवहिं जसि ओरी॥

    पुरबा लाग पुहुमि जल पूरी। आक जवास भई हौं झूरी॥

    धनि सूखी भर भादौं माहाँ। अबहूँ आइ सींचति नाहाँ॥

    जल थल भरे अपूरि सब आँगन धरति मिलि एक।

    धनि जोबन औगाह महँ दे बूड़त पिय टेक॥

    भादों का महीना भर गया है। वह अत्यन्त दुःसह और भारी है। अँधियारी रात कैसे काटूँ? मंदिर सूना करके प्रियतम अन्यत्र बसे हैं। सेज नाग होकर दौड़-दौड़ कर डसती है। एक पट्टी पकड़े मैं अकेली पड़ी रहती हूँ। नेत्र फैलाए हुए मैं हृदय फटने से मरी जा रही हूँ। बिजली चमक कर और मेघ गरज कर मुझे डरपाते हैं। विरह काल होकर प्राण हर लेता है। मघा नक्षत्र झकझोर कर बरस रहा है। मेरे दोनों नेत्र ओली से चू रहे हैं। मघा के बाद पूर्वा फाल्गुनी लग गया और धरती जल से भर गई। मैं सूखकर ऐसे हो गई, जैसे वर्षा में आक और जवास बिना पत्ते के हो जाते हैं। भरे भादों में भी युवती सूख रही है। हे स्वामी, अब भी आकर क्यों नहीं सोंचते?

    ऊँचे स्थल भी जल से ऊपर तक भर गए हैं। धरती आकाश मिलकर एक हो गए हैं। हे प्रिय, यौवन के अगाध जल में डूबती हुई नव-यौवना को सहारा दो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 346)
    • रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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