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नागमती वियोग (सात)

nagamti wiyog (sat)

मलिक मोहम्मद जायसी

मलिक मोहम्मद जायसी

नागमती वियोग (सात)

मलिक मोहम्मद जायसी

और अधिकमलिक मोहम्मद जायसी

    कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल हौं बिरहैं जारी॥

    चौदह करा कीन्ह परगासू। जानहुँ जरें सब धरति अकासू॥

    तन मन सेज करै अगिडाहू। सव कहँ चाँद मोहिं होइ राहू॥

    चहूँ खंड लागे अँधियारा। जौं घर नाहिंन कंत पियारा॥

    अबहूँ निठुर आव एहिं बारा। परब देवारी होइ संसारा॥

    सखि झूमक गावहिं अँग मोरी। हौं झूरौं बिछुरी जेहि जोरी॥

    जेहि घर पिउ सो मुनिवरा पूजा। मो कहँ बिरह सवति दु:ख दूजा॥

    सखि मानहि तेवहार सब गाइ देवारी खेलि।

    हौं का खेलौं कंत बिनु तेहिं रही छार सिर मेलि॥

    कार्तिक में शरद के चंद्रमा की उजाली छाई हुई है। जगह शीतल है पर मैं विरह से जल रही हूँ। चौदह कलाओं से पूर्ण होकर चंद्रमा ने प्रकाश किया है। मुझे जान पड़ता है जैसे धरती से आकाश तक सब जल रहा है। मेरे तन और मन में सेज अग्निदाह उत्पन्न करती है। सबके लिए जो चाँद है वह मेरे लिए राहु हो रहा है। जब घर में प्यारा कंत नहीं, तो चारों दिशाओं में अँधेरा लगता है। हे निष्ठुर, अब भी इस दिन तो घर जाओ, जब कि संसार में दिवाली का पर्व मनाया जा रहा है। सखियाँ अंग मोड़-मोड़कर झुमक गा रही हैं। जिसकी जोड़ी बिछुड़ गई है ऐसी मैं ही सूख रही हूँ। जिसका प्रियतम घर पर है, वह कार्तिक की पूर्णिमा को सप्तर्षियों की पूजा करती है। मुझे तो विरह और सौत का दोहरा दुःख है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 348)
    • रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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