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नागमती वियोग (एक)

naagamtii viyog (.ek)

मलिक मोहम्मद जायसी

मलिक मोहम्मद जायसी

नागमती वियोग (एक)

मलिक मोहम्मद जायसी

और अधिकमलिक मोहम्मद जायसी

    नागमती चितउर पंथ हेरा। पिउ जो गए फिरि कीन्ह फेरा॥

    नागरि नारि काहूँ बस परा। तेइँ बिमोहि मोसौं चितु हरा॥

    सुवा काल होइ लै गा पीऊ। पिउ नहिं लेत लेत बरु जीऊ॥

    भएउ नरायन बावन करा। राज करत बलि राजा छरा॥

    करन बान लीन्हेउ कै छंदू। भारथ भएउ झिलमिल आनंदू॥

    मानत भोग गोपीचँद भोगी। लै उपसवा जलंधर जोगी॥

    लै कान्हहि भा अकरुर अलोपी। कठिन बिछोउ जिऐ किमि गोपी॥

    सारस जोरी किमि हरी मारि गएउ किन खग्गि।

    झुरि झुरि पाँजरि धनि भई बिरह कै लागी अग्गि॥

    नागमती चित्तौड़ में बाट देखती थी। ‘प्रियतम जो गए लौट कर आए। वे किसी नागरी नारी के फेर में पड़ गए हैं। उसने मोहित करके उनका चित्त मेरी ओर से हर लिया है। सुग्गा काल बनकर प्रियतम को ले गया। हाय! प्रिय को ले जाता चाहे प्राण ले जाता। वह सुग्गा वामन रूप में नारायण बनकर आया और राज करते हुए राजा बलि को छल ले गया। उसने छल करके कर्ण की परीक्षा ली, जिससे अर्जुन को उसके कवच से आनंद हुआ। भोगी गोपीचन्द भोगों में फँसे थे। जोगी जालन्धर नाथ उन्हें लेकर चले गए। कृष्ण को लेकर अक्रूर अदृष्ट हो गया। कठिन बिछोह में गोपी कैसे जीवित रहेगी?

    सारस की जोड़ी में से एक को वह क्यों हर ले गया? हरना ही था तो खगी को मार क्यों नहीं गया?’ विरह की ऐसी आग लगी कि युवती सूख-सूख कर पिंजर हो गई।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 340)
    • रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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