नखशिख (ग्यारह)
nakhshikh (gyarah)
हिया थार कुच कंचन लाडू। कनक कचोर उठे करि चाडू॥
कुन्दन बेल साजि जनु कूँदे। अम्ब्रित भरे रतन दुइ मूँदे॥
बेधे भंवर कंट केतुकी। चाहहि बेध कीन्ह केंचुकी॥
जोबन बान लेहिं नहिं बागा। चाहहिं हुलसि हिएँ हठि लागा॥
अगिनि बान दुइ जानहु साँघे। जग बेधहिं ऊँ होहिं न बाँधे।
उतँग जँभीर होइ रखवारी। छुइ को सकै राजा कै बारी॥
दारिवँ दाख फरे अनचाखे। अस नारंग दहुँ का कहँ राखे॥
राजा बहुत मुए तपि लाइ लाइ भुइँ माथ।
काहूँ छुऐ न पारे गए मरोरत हाथ॥
पद्मावती के हृदय रूपी थाल में दोनों कुच मानो सोने के दो लड्डू हैं। सोने के दो उभरे हुए कटोरे उन कुचों के सौंदर्य की चाटुकारी करते हैं। सोने के बिल्वफल बनाकर मानो खराद पर चढ़ाए गए हैं। दोनों को अमृत से भरकर रत्नों से मुद्रित कर दिया गया है। अथवा वे केतकी की सुइयों के समान हैं जिनके काँटों में दो भौंरे छिद गए हैं। वे नुकीले स्तन कंचुकी को वेधकर निकलना चाहते हैं। वे यौवन के बाण वश में नहीं हैं। बलपूर्वक किसी के हृदय में हुलस कर लग जाना चाहते हैं। अथवा मानो दो अग्नि-बाण साधे गए हैं। यदि बँधे न हों तो सारे संसार को बेध डालें। उन ऊँचे जँम्भीरी नींबुओं की रखवाली होती है। राजा के बग़ीचे में उन्हें कौन छू सकता है अर्थात राजकन्या के उन स्तनों को कौन छू सकता है? स्तन और उनके अग्रभाग ऐसे हैं, मानो अनार और अंगूर फले हैं। जिन्हें किसी ने चखा नहीं, ऐसे नारंग फूल न जाने किसके लिए रखे हैं!
- पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 109)
- रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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