सौंदर्य वर्णन (ग्यारह)
saundarya warnan (gyarah)
बरन सुनहु औ कहौं कुनाई। कुंदन के जनु देह झरकाई।
कूंखि बरन चंपा कै कली। अच्छरि उड़ि इंद्रासन चली।
कांचे कंवल कनक नीर पिया। अइस बरन बिधि ओहि कहं दिया।
पुहुप जहां लहि अंग गंधाहीं। कंवल कहाँ मुख संवरि लजाहीं।
पदुमिनि लोन बरन गुन काहा। अति सुरूप तेहि भूलेउं आहा।
ससिहर जस रे सरद रितु निरमी सोरह करां चमंक।
वहि क किरिन आई नयनन कहं हौं चकोर जस रंक॥
उसकी कुनाई का वर्णन कर रहा हूँ। उसकी देह ऐसी है मानो कुंदन झलक रहा हो। उसकी कुक्षि का वर्ण ऐसा है मानो वह चंपक कलिका हो अथवा वह कोई अप्सरा हो जो उड़कर इंद्रलोक को जा रही हो। कच्ची कमल-कलिका ने जैसे सोने का जल पीया हो, ऐसा वर्ण विधाता ने उसको दिया है। जहाँ तक भी पुष्प हैं, वे उसके अंगों में सुगंध देते हैं। कमल तुलना में कहाँ हैं? वे उसके मुख का स्मरण कर लज्जित रहते हैं। वह लावण्यपूर्ण पद्मिनी है, उसके गुणों का वर्णन क्या करूँ? वह अत्यधिक सुरूपा है इसलिए मैं उसे भूल रहा हूँ। शरद ऋतु में जैसा शशि होता है, उसी प्रकार की वह भी षोडस कलाओं से युक्त चमक से निर्मित है। जब उसकी आभा मेरे नेत्रों की ओर आई, मैं चकोर की भांति रंक हो गया।
- पुस्तक : मृगावती (पृष्ठ 55)
- संपादक : माताप्रसाद गुप्त
- रचनाकार : कुतुबन
- प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
- संस्करण : 1968
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