सौंदर्य वर्णन (दस)
saundarya warnan (das)
केदलि खंभ दुइ जगत सुहाए। ओहिक चीर आनि पहिराए।
देखेउं जंघ पार नहिं पावा। कनक हेर सेंदुर जनु लावा।
के मलयागिरि केर संवारे। सुभर पेड़ पालव सटकारे।
चलत अंत तरुवन्ह के पावा। जानहु घोरि महावर लावा।
मन महं अस भा बरु हिएं राखौं। पाव धरइ तहं तिन्ह रंग चाखौं।
कीन्ह सिगार संचि के सोलह रहेउं निकटहि भुलाइ।
सिर सेउं लखन संपूरन रुद रेखा दुहुँ पाइ॥
उसकी जाँघें ऐसी हैं मानो संसार के दो सुहावने कदली-स्तंभ हों और उन्हें ही चीर लाकर पहिना दिया गया हो। उसकी जाँघे मैंने देखीं जिन्हें कोई नहीं पा सकता है। वे ऐसी लगीं मानो सोने ने हेलापूर्वक सिंदूर लगा लिया हो अथवा मानो मलयागिरि के संवारे हुए और पल्लवों से परिपूर्ण पेड़ हों। उसके चलते समय उसके पैरों के तलवों का मर्म मिल सका। मानो उनमें घोलकर महावर लगाया हुआ हो! मेरे मन में ऐसा हुआ कि अच्छा होता यदि उन्हें मैं हृदय में रख सकता जिससे जब वह पैर रखती, उन का रंग चख सकता। उसने सोलह सिंगार किए हैं जिससे मैं उसके निकट रहकर भ्रमित हो रहा। सिर से ही वह शुभ लक्षणों से संपूर्ण है और उसके दोनों चरणों में रुद्र-रेखाएँ हैं।
- पुस्तक : मृगावती (पृष्ठ 54)
- रचनाकार : कुतुबन
- प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
- संस्करण : 1968
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