कनक दंड दुइ भुजा कलाई। जानहुँ फेरि कुँदेरें भाई॥
कदलि खाँभ की जानहुँ जोरी। औ राती ओहि कँवल हथोरी॥
जानहुँ रकत हथोरीं बूड़ीं। रबि परभात तात वह जूड़ीं॥
हिया काढ़ि जनु लीन्हेसि हाथाँ। रकत भरी अँगुरी तेहिं साथाँ॥
औ पहिरें नग जरी अँगूठी। जग बिनु जीव जीव ओहि मूठी॥
बाँहू कंगन टोड़ सलोनी। डोलति बाँह भाउ गति लोनी॥
जानहुँ गति बेड़िनि देखराई। बाँह डोलाइ जीउ लै जाई।
भुज उपमा पँवनारि न पूजी खीन भई तेहि चिंत।
ठाँवहिं ठाँव बेह भे हिरदैं ऊभि साँस लेइ निंत॥
पद्मावती की दोनों भुजाएँ और कलाई स्वर्ण के दंड की तरह हैं, मानो खरादी ने खराद पर घुमाकर उन्हें सुंदर बनाया है। वे मानो केले के खंभों की जोड़ी हैं। उसकी लाल हथेलियाँ कमल की तरह हैं। जान पड़ता है वे हथेलियाँ रक्त में डूबी हुई हैं। उनकी लाली प्रातःकालीन सूर्य की भाँति कैसे कही जाए? प्रभात का सूर्य गर्म और वह ठंडी है। कितनों का हृदय निकालकर मानो उसने अपने हाथों में लिया है? तभी तो उसके संयोग से अँगुलियाँ रक्त में भरी हुई हैं। वे अँगुलियाँ रत्न जटित अँगूठियाँ पहने हैं। संसार बिना प्राण के है क्योंकि जग का प्राण उसकी मुट्ठी में है। उसकी भुजा कंगन और टड्डों से सुशोभित है। जब वह भुजा घुमाती है तो उसकी सुंदर चाल अति सुंदर लगती है। मानो कला करने वाली नटिनी अपनी मोड़-मुड़क वाली चाल दिखा रही हो, जो बाँह घुमाकर प्राण हर ले जाती है।
- पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 108)
- रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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