बारहमासा (ज्येष्ठ)
barahmasa (jyeshth)
जेठ मास सूरिज दौं लावइ। लुवइं लवह जनु आगि जरावइ।
तपइ बजासनि परइ अंगारा। तेहि पर मदन तवइ बिकरारा।
सूरुज सना कंचु और चीरा। काम दगधि अति बिकल सरीरा।
तुम सीतल आवहु हम पासा। पियत जाइ खंडवानि पिआसा।
होइ मलयगिरि आवहु नाहां। ग्रीखम जरत करहु हम छाहां॥
दुल्लभ कहियह कंत सेउं उनइ आउ घन घट्ट।
नाहिं त सूरह मोहि जारिहि जारि करिहि दह बट्ट।
ज्येष्ठ मास में सूर्य दावाग्नि लग रहा है। ऐसी लपटें निकलने लगीं मानो अग्नि जल रही हो। वह तपने लगा और अंगारे पड़ने लगे। उस पर भी काम विरहिणी के लिए काल प्रतीत हो रहा था। सूर्य के-से कंचुक और चीर थे और कामाग्नि के मारे शरीर अति विकल था। ऐ शीतल प्रिय, तुम मेरे पास आओ। तुम खंडवानी का पान करते ही मेरी प्यास चली जाएगी। ऐ स्वामी, तुम मलयागिरि की वायु होकर आओ, और ग्रीष्म से जलती हुई मुझको शीतल कर दो! ऐ दुर्लभ, तुम प्रियतम से कहना कि ऐ घन-घट्ट, तुम अब अवनमित हो आओ। नहीं तो विरह-सूर्य मुझे जला डालेगा और मुझे जलाकर दस बाटों में कर देगा।
- पुस्तक : मृगावती (पृष्ठ 282)
- संपादक : माताप्रसाद गुप्त
- रचनाकार : कुतुबन
- प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
- संस्करण : 1968
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