बारहमासा (वैशाख)
baarahmaasa (vaishaakha)
बैसाखइं फर तरुवर लागे। बेरसु आइ पिय कंत सभागे।
अमिअ सुफर राखे तुम्हं जोगा। बेगि आइ रस मानहि भोगा।
अब लहि मैं राखी अंबराई। अब दुरिजन पहं राखि न जाई।
बिरह सुवा फर चाहइ खावा। अब बूतें नहिं जाइ उड़ावा।
कब लगि बिरह उड़ावउं नाहां। अलप बएसि सतु रही न बाहां।
रीस परेवहि नारि लगि देखि हाथ औरांह।
हम पिउ हरख बसाए दीतिसि बिरह करांह।
बैशाख में वृक्षों में फल लग गए तो मैंने कहा, 'ऐ भाग्यशाली प्रिय, आकर तू इन फलों का भोग कर। मैंने तेरे योग्य ये अमृत (जैसे) सुफल रख छोड़े हैं, तू वेग-पूर्वक आकर इनका रस-भोग मान। अब तक मैंने आम्रराजी की रक्षा की, किंतु अब दुर्जनों (दुःखों) से उसकी रक्षा नहीं हो रही है। विरह-शुक (उसके) फलों को खा जाना चाहता है, और अब (मेरे) बूते से वह उड़ाया नहीं जा रहा है। ऐ स्वामी, उस विरह-शुक को मैं कब तक उड़ाती रहूँ! क्योंकि मैं एक तो अल्प-वय की हूँ और दूसरे अब बाहों में सामर्थ्य भी नहीं रहा है। पारावत को नारी के लिए रोष होता है, जब वह उसे और किसी के हाथों में देखता है। किंतु ऐ प्रिय, तुमने मुझे हर्ष से बसा कर विरह के हाथों में सौंप दिया।
- पुस्तक : मृगावती (पृष्ठ 282)
- संपादक : माताप्रसाद गुप्त
- रचनाकार : कुतुबन
- प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
- संस्करण : 1968
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