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चित्रशाला वर्णन

chitrshala warnan

उसमान

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चित्रशाला वर्णन

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और अधिकउसमान

    पुनि जहाँ मांझ फुलवारी, तहं चित्रावलि की चितसारी।

    चंदन मेद कपूर मिलावा, इन्ह तिहुं मिल के कीन्ह गिलावा॥

    हीरा ईंट लगाइ ऊंचाई, देखत बनै बरनि नहिं जाई।

    चुनी चूरि के कीन्हो खोहा, मोती चूरि गच्च जग मोहा॥

    अति निरमल जग दरपन कीन्हा, तहाँ जाइ पुनि आप चीन्हा।

    मंदिर एक तह चारि दुआरी, नगिन जरी पुनि लागु केवारी॥

    कनक खंभ तहँ चारि बनाए, होरा रतन पदारथ लाए।

    ठौर-ठौर सब जग जरित, अस होइ रहेउ अंजोर॥

    जहँ रैन दिन जानिए, सांझ नहि भोर।

    तेहि मंह चित्रावलि गुन ग्यानी, आपन चित्र लिखे अस जानी।

    जो लौं सखी दरस नहिं पावहिं, मोरहिं आइ सीस तेहि नावहिं॥

    और जो चित्र अहहिं तेहि माहिं, सो चित्रावलि की परछाहीं।

    अस विचित्र केहि लावो जोरी, अस्तुति जोग जीभ नहिं मोरी॥

    वही रंग अपने रंग माहीं, ओहि के रंग और कोउ नाहीं।

    सौंहा जाइ चित्र मुख हेरा, धन सो चित्र धन सो चितेरा॥

    मानुष कहा सो देखै पावै, देवता जाहिं जोहारे आवै।

    कोटि चित चितसारि महं, देखत एको नाहिं।

    जौं दिनकर उद्योत ही, नखत सबै छिपि जाहिं॥

    फुलवारी के बीच में चित्रावली की चित्रशाला है। उसने चंदन, चर्बी और कपूर मिलाया। इन तीनों के मिलने पर गारा बन गया। उससे हीरे की ईंटों की चिनाई काफ़ी ऊँचाई तक की गई। उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। चुने हुए मोतियों का चूर्ण किया और वहाँ गुफा बनाई गई है, मोतियों के चूर्ण से ही छत बनाने का सामान तैयार किया गया, जिसे देखते ही संसार मोहित हो जाता है। वहाँ का संसार दर्पण की भांति स्वच्छ है। वहाँ जाने पर अपने आपको पहचानना कठिन है। वहाँ एक मंदिर है जिसके चार द्वार है। उसके दरवाजों पर भी नग जड़े हुए हैं। स्वर्ण के चार खंभे बनाए गए हैं तथा उसमें हीरा आदि रतन पदार्थ जड़े गए हैं। वह संसार स्थान-स्थान पर नग जड़ित है और उनका प्रकाश फैल रहा है। वहाँ रात नहीं होती। अत: प्रत्येक समय दिन समझना चाहिए क्योंकि वहाँ साँझ होती है और रात।

    उस महल में गुणवती चित्रावली रहती है। वह चित्र बनाती है तथा उसका ज्ञान काफी समृद्ध है। जो सखी उसका दर्शन नहीं कर पाती वह प्रातः होते ही आकर शीश झुकाती है। जो अनेक चित्र वहाँ हैं, वे सब चित्रावली की परछाईं मात्र हैं। उस रूपवती, गुणवती तथा सुलक्षणा की दूसरी जोड़ी को कहाँ से लाएँ! उसकी प्रशंसा करने योग्य हमारी जिह्वा नहीं है। वह अपने रंग की आप ही है। उसकी तुलना-योग्य कोई भी नहीं है। वैसा सुंदर कोई नहीं मिलेगा। उसके सामने प्रत्यक्ष दर्शन कुछ भी नहीं है। वह चित्र भी धन्य है और उस चित्र को बनाने वाला चित्रकार भी धन्य है। मनुष्य की भला क्या बिसात जो उसे देख पाए। देवता भी वहाँ आते हैं और उसको नमस्कार करके चले जाते हैं। चित्रावली की चित्रशाला में सहस्रों चित्र हैं, किंतु उसके प्रत्यक्ष दर्शन के समक्ष उनमें से एक भी नहीं दीखता। क्योंकि उसके मुखमंडल से सूर्य का-सा प्रकाश निकलता रहता है, जिसे देखकर सब नक्षत्र छिप जाते हैं अर्थात् उनका प्रकाश फीका पड़ जाता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : चित्रावली (पृष्ठ 55)
    • संपादक : माया अग्रवाल
    • प्रकाशन : कला मंदिर
    • संस्करण : 1985

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