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वारांगना

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गोपालशरण सिंह

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वारांगना

गोपालशरण सिंह

और अधिकगोपालशरण सिंह

    धन के बदले जीवन-धन की

    तूने हाय, करा दी लूट।

    सुधा पिलाती है औरों को

    पीकर स्वयं गरल के घूँट।

    आत्मा-हनन में कौन स्वार्थ है,

    सर्वनाश है क्या परमार्थ?

    विश्व-विमोहन रूप अलौकिक

    बना एक है पण्य-पदार्थ।

    यह विचार कर क्या होता है

    कभी नहीं तुझको अनुताप?

    निज अमूल्य जीवन पर तूने

    लगा मूल्य की दी है छाप।

    होता है जग मुग्ध देख कर

    तेरा नित नवीन शृंगार।

    कौन कभी सुनता है, बाले!

    तेरे उर का हाहाकार?

    सच बतला, क्या अपने मन में

    रहती है तू कभी प्रसन्न।

    तरुणी! तेरे इस जीवन में

    कितनी करुणा है प्रच्छत्र?

    देख रहा है दृश्य चकिन हो

    उठा-उठा कर सिर वारीश।

    अपराधिनी समान खड़ी है,

    तू सुंदरी झुका कर शीश।

    तेरे जीवन के सुख-साधन

    हैं जग-जीवन के अभिशाप।

    अतिशय आकर्षक बनता है

    तुझमें मूर्त्तिमान हा पाप।

    जहाँ विलास वहीं क्रंदन भी,

    जिससे घृणा उसी से प्यार—

    जो करता है घृणा उसी से,

    कैसे हो तेरा अनुराग?

    होकर भी संपत्ति-शालिनी

    महा अकिंचन तू है दीन।

    तू है रूप-राशि राशि-वदनी

    पर है अंतर्ज्योतिविहीन।

    पंकिल पंकज मंजु कली की

    तू ही है जग में उपमान।

    है कलंकिनी चंद्र-कला-सी

    तू भी मंजुलता की खान।

    बिँधी कंटकों सो कलिका-सी,

    हँसती तू भी है सोल्लास।

    उर की मार्मिक व्यथा छिपाकर

    करती है नित हास-विलास।

    यह निर्दय संसार सर्वदा

    तुझ पर कीचड़ रहा उलीच।

    प्रेम-वारि से भी क्या तुझको

    दिया किसी ने आकर सींच।

    रही खोजती सदा किंतु क्या

    मिला तुझे तेरा हृदयेश

    कभी किसी रत्न का तुझे खटकता

    रहता है सब काल अभाव।

    निज जीवन में कभी पाया

    तूने जीवन का आनंद।

    खुले हुए भी सदा रह गए

    तेरे लोल विलोचन बंद।

    सना हृदय के नयन-नीर से

    है तेरा उल्लास-विलास।

    छिपा हुआ रह गया सर्वदा

    तेरे उर का विमल प्रकाश।

    रस-सागर में हो निमग्न भी

    तू रह गई सदैव सतृष्ण।

    कैसे प्यास बुझे जीवन की?

    मिला तुझको तेरा कृष्ण।

    वसुधा के शुचि स्वर्ग-सदन में

    कभी तेरा हुआ निवास।

    रवि-शशि के रहते भी तूने

    देखा बस सूना आकाश।

    यह विचार करने का तुझको

    मिला नहीं जग में अवकाश—

    है अज्ञात-रूप से तेरे

    उर में छिपा कौन अभिलाष।

    कभी-कभी तेरे मन में भी

    जग उठता है आत्म-विरोध।

    सुमनों की शय्या पर भी तू

    करती है कंटक का बोध।

    तेरे जीवन का वरानने!

    है कैसा विचित्र इतिहास?

    जो औरों का सुख-विलास है,

    वह है तेरा सत्यानाश।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मानवी (पृष्ठ 65)
    • रचनाकार : गोपालशरण सिंह
    • प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
    • संस्करण : 1938

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