रेत भर गई है आँखों में
ret bhar gaee hai aankhon mein
रेत भर गई है आँखों में
धारा अंतर्धान हुई
भाग रहा हूँ एक हिरन-सा
दुनिया तीर-कमान हुई
अब तो आते नहीं स्वप्न भी
राग, नेह, परिणय, उत्सव के
और नदी में टूट रहे हैं
दर्पण कई सघन अनुभव के
छवियों के ओझल होते ही
यह दुनिया वीरान हुई
बादल, पानी, पेड़, हवा के
रिश्ते बिखर गए आँखों में
जैसे फूलों के झरते ही
ख़ालीपन उभरे शाख़ों में
रूप क्षणों की छाया पल में
जलता हुआ मकान हुई
कोलाहल से बच निकला तो
सूनेपन में उलझ गया हूँ
और उलझकर लगा कि जैसे
उलझ-उलझ कर सुलझ गया हूँ
कल से आज, आज से कल की
यह कैसी पहचान हुई
- रचनाकार : विनोद श्रीवास्तव
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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