विश्व मेरे, मैं मिटा अस्तित्व अपना
चाहता हूँ भूल जाना वह तड़पना,
चाहता हूँ आज मैं स्पंदन तुम्हारा
चाहता बन जाए सत्य अतीत सपना।
विश्व मेरे, मत सुनो मेरी कहानी,
मैं न कहना चाहता बातें पुरानी,
चाहता हूँ छोड़ना केंचुल पुराना,
चाहता जीवन नया, नूतन जवानी।
विश्व मेरे, मैं बदलता जा रहा हूँ,
काट सब बंधन निकलता जा रहा हूँ,
चाहता मैं 'तुम' बनूँ, इससे तुम्हारे—
रूप में मैं आज ढलता जा रहा हूँ।
विश्व मेरे, लो मुझे निज में मिला लो!
सिंधु तुम, मैं बूँद, लो मुझको सँभालो!
विश्व मेरे, मैं तुम्हारा हो गया हूँ,
मैं मिटा निज को तुम्हीं में खो गया हूँ,
तुम गगन-विस्तार मैं झंकार बनकर
अब तुम्हारी ही लहर में सो गया हूँ।
विश्व मेरे, अब तुम्हीं हो, मैं नहीं हूँ,
मैं न कोई और, जो तुम हो, वही हूँ,
पास की दूरी मिटाकर मुक्त निज से
आ गया मैं, तुम जहाँ मैं भी वहीं हूँ।
विश्व मेरे, मिट गई मेरी व्यथा है,
एक ही मेरी तुम्हारी अब कथा है,
एक ही सुख और दुख मेरे-तुम्हारे
मन हुआ तुममय, नहीं अब अन्यथा है।
विश्व मेरे, रिक्त मैं तुमसे भरा हूँ!
मर गया मैं, हो गया अब दूसरा हूँ।
विश्व मेरे, स्वप्न मैं बुनता नया हूँ,
आँसुओं के अग्नि-कण चुनता नया हूँ,
जो अनागत की कथा सौ-सौ लिए उन
आँधियों में गीत सुनता नया हूँ।
स्वर-सुरभि उठती लपट की क्यारियों से,
छंद बनते जा रहे चिनगारियों से,
है ध्वनित आकाश जिसके घोर रव से,
गीत गूंजित नग्न तन नर-नारियों से।
चाँदनी बेबस पिघलती जा रही है
रूप की दुनिया बदलती जा रही है।
सत्य के निष्करुण विद्युज्जाल से घिर
कल्पना सुकुमार जलती जा रही है।
उठ रहा जीवन मरण-परिधान लेकर
स्वप्न यह कितना सुखद कितना भयंकर?
विश्व मेरे, यह नया मेरा सवेरा,
मिट गया मानस-क्षितिज का क्षीण घेरा,
ज्योति की परियाँ धरा पर मौन उतरीं,
ओस के आँसू धुले, खोया अँधेरा।
यह नए दिन की उषा मुसका रही है,
इंद्रधनुषी छवि धरा पर छा रही है,
शून्य में उड़कर गए थक पंख जिसके
कल्पना अब भूमि पर लहरा रही है।
चल पड़े नूतन डगर पर ये चरण हैं,
और पदतल में झुके जीवन-मरण हैं,
सिंधु में हरियालियों के तैरते-से
स्वप्न कल के देखते मेरे नयन हैं।
भूमि पर उर्वर उगी कविता नई है!
संधि-वेला में बनी जो रसमयी है!
विश्व मेरे, बह रही है काल-धारा
अनवरत, जिसका नहीं कोई किनारा,
तोड़ती पथ के सभी तृण-लता-पादप
पर्वतों को; नाश जिसका मंत्र प्यारा
गूँजता भू पर दिगंतों बीच; सुनकर—
डर रहे हम; बह रहे बेबस लहर पर
क्षुद्र तिनकों से। निपट अनजान मानव
हम न अब बनकर रहेंगे। हम अनश्वर
शक्ति के हैं केंद्र, जीवन के प्रणेता।
क्षुद्र तिनके काल-धारा के विजेता
अब बनेंगे, एक-एक नहीं सहस शत
एक होकर। आत्म मुक्त समष्टि-चेता—
व्यक्ति होगा, काल के रथ पर चढ़ेगा!
प्राणवंत, नई दिशाओं में बढ़ेगा!
- पुस्तक : दिवालोक (पृष्ठ 67)
- रचनाकार : शंभुनाथ सिंह
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 1953
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