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सत्य स्वप्न

satya svapn

शंभुनाथ सिंह

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सत्य स्वप्न

शंभुनाथ सिंह

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    प्रात बनकर मुस्कुराती जा रही हो!

    स्वप्न मेरे सच बनाती जा रही हो!

    बादलों से तृप्ति की जब आश त्यागी,

    बेसुधी में पत्थरों से भीख माँगी,

    मिल सकीं दो बूँद प्यासे को नहीं पर

    अश्रु पीकर सो गई आँखें अभागी,

    पर खुली जो आँख तो क्या देखता हूँ,

    उर्वशी-सी स्वप्न-सागर से निकलकर

    तुम सुधा मुझको पिलाती जा रही हो!

    तृप्ति-धारा में डुबाती जा रही हो!

    प्रेम का था देवता बनने चला मैं,

    पर गया संसार से कितना छला मैं?

    आरती अपनी सँजो निज अश्रु से ही

    एक जड़ पाषाण-प्रतिमा-सा गला मैं,

    पर हुआ जब चेत तो क्या देखता हूँ,

    तुम पुजारिन बन खड़ीं मेरे भवन में

    दीप साँसों के जलाती जा रही हो!

    फूल प्राणों के चढ़ाती जा रही हो!

    शक्ति, विथकित पाँव की जब डगमगाई,

    ठीकरों ने भी मुझे ठोकर लगाई,

    पाश में विषधर विषम-तम के बँधा फिर

    काल ने पहचान जीवन की मिटाई,

    पर हुआ जब होश तो क्या देखता हूँ,

    तुम उषा की अप्सरा बनकर गगन में

    रात के परदे उठाती जा रही हो!

    राह में कुमकुम बिछाती जा रही हो!

    दूर मुझसे विश्व का रंगीन मेला

    था, बना जीवन अमा की मौन वेला,

    छूटकर रसमय धरा की तान लय से

    खो गया नभ-बीच मेरा स्वर अकेला,

    पर हुआ जब ध्यान तो क्या देखता हूँ,

    तुम खड़ीं साकार पूनम-रागिनी बन

    गीत मेरे साथ गाती जा रही हो!

    सृष्टि-स्वर में स्वर मिलाती जा रही हो!

    स्वप्न मेरे सच बनाती जा रही हो!

    स्रोत :
    • पुस्तक : दिवालोक (पृष्ठ 29)
    • रचनाकार : शंभुनाथ सिंह
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1953

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