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मधु ऋतु

madhu ritu

शंभुनाथ सिंह

शंभुनाथ सिंह

मधु ऋतु

शंभुनाथ सिंह

और अधिकशंभुनाथ सिंह

    मधु ऋतु के कुंजों में यौवन की प्यास खिली!

    सुधि के सुरभित झोंकों से जीवन-डाल हिली!

    किसलय के तन में फूटी मधु की अरुणाई,

    बेसुध वन की चेतना उठी ले अँगड़ाई,

    मधु-स्वप्न-श्रांत मधुकर-मन को छवि-छाँह मिली,

    मधु ऋतु में बनकर तृप्ति विरह की प्यास खिली!

    आई सपनों के तट पर स्वर की स्वर्ण-तरी,

    नीलांचल में छिप गीतों की परियाँ उतरीं,

    गूँजी जीवन के गुंजन से वन-कुंज-गली,

    स्वर के वृंतों पर पिक-प्राणों की प्यास खिली!

    जागे धरती के दिन के सतरंगे सपने,

    कल्पना उठी खोले कंचन के पर अपने,

    मधु गंध-अंध मन की जागी साधें पगली,

    छवि की लपटों में सुधि-वेला की प्यास खिली!

    आईं नर्तन करतीं कविता की किन्नरियाँ,

    मधु से पागल खुल गई हृदय की पंखुरियाँ,

    मलयज-छंदों में कवि-उर की रस-धार ढली,

    केसर के गीतों में पतझर की प्यास खिली!

    स्रोत :
    • पुस्तक : दिवालोक (पृष्ठ 61)
    • रचनाकार : शंभुनाथ सिंह
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1953

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