कोमल-नवल-नवल-पल्लव-दल-
कल-कुसुमों से विरचित।
रुचिर रत्न क्षिति के अमूल्य सब
हैं तुझमें चिर-संचित।
जग की सुंदर चित्र-पटी
कुशल करों से अंकित।
मानवता की मंजु-मूर्त्ति है
प्रेम-राग से रंजित
है शृंगारमयी शोभा तू,
करुणा की हमजोली।
रहती है वात्सल्य-भाव के
रस से भीगी चोली।
तेरे प्रेम-स्पर्श से पुलकित
आँख जगत ने खोली।
पर तो भी रद्द अभी तक
निद्रित ही तू भोली!
है स्वामिनी जगत के उर की
प्रेम-राज्य की रानी।
युग-युग के अगणित क्लेशों की
तू है भव्य भवानी।
बनती है तू विश्व-विजयिनी
ले आँखों में पानी।
रोते हुए क्षुधित जग-शिशु की
है माता कल्याणी।
सदा न्याय-रक्षा के हित तू
है रण में वीराणी।
दुखी जनों के लिए दया की
तू है कोमल वाणी।
सुधा-सिक्त रहते हैं तुझसे
वसुधा के सब प्राणी।
राग-द्वेष से पूर्ण जगत में
सरस प्रेम की कविता।
अंधकारमय भूतल में तू
है ज्योतिर्मय सविता।
जग के सुंदर प्रेम-सदन की
प्रेममयी है वनिता।
तो भी हाय! रही अभागिनी
तू सदैव पद-दलिता।
रोती रही सभी देशों में
तू कुररी-सी दीना।
पावस की विभावरी-सी तू
रही सदैव मलीना।
अखिल विश्व-आनंद-दायिनी
है आनंद-विहीना।
गृह-लक्ष्मी होकर भी जग में
रही न तू स्वाधीना।
कल्प-लता जग-नंदन-वन की
विमल ज्योति भूतल की।
विश्व-मोहिनी है सगंधि-सी
सरस पुष्प-परिमल की।
रस-सागर में है विलीन तू
मीन प्रेम के जल की।
है कामिनी! दामिनी-सी तू
भव-दुख-दल बादल की।
किसने चारु चरित्र-विभव में
है तेरी समता की।
है तू वर-संपत्ति-शालिनी
दया-क्षमा-ममता की।
है सीमा तू जगतीतल में
कष्ट-सहन-क्षमता की।
जग में छाप लगा दी तूने
अपनी अनुपमता की।
प्राणेश्वरी प्रियतमा जग की
सदा दुखी तू रहती।
जग-जीवन के महासिंधु में
निरवलंब है बहती।
तुझे नहीं चिंता है इसकी
क्या दुनिया है कहती।
तू चुपचाप विश्व की सारी।
विपदाएँ है सहनी।
अनुरागी त्यागिनी बनकर
तू है कीर्ति कमाती।
है मानवी, किंतु देवी तू
है जग में कहलाती।
प्रेम-देव के चरणों पर तू
है सर्वस्व चढ़ाती।
पर वरदान दुःख-कलेशों का
तू सदैव है पाती।
- पुस्तक : मानवी (पृष्ठ 1)
- रचनाकार : गोपालशरण सिंह
- प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
- संस्करण : 1938
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.