मन के मंजीरे आज
खनकने लगे
भूले थे चलना
क़दम थिरकने लगे
अंग-अंग बाजे मृदंग-सा
सुर मेरे जागे
साँस-साँस में, बाँस-बाँस में
धुन कोई साजे
गाए रे, दिल ये गाने लगा है
मुझको आने लगा है
ख़ुद पे ही एतबार
ख़ुद पे ही एतबार
बादल तक झूले मेरे
पहुँचने लगे
आँखों के आगे गगन
सिमटने लगे
गाल गाल पे, ताल ताल दे
छू के हवाएँ
खेत खेत ने, रेत रेत ने
फैला दी बाँहें
आई रे, सिंदूरी सुबह आई
घुलती जाए स्याही
रातों की, रातों की
रातों की, रातों की
खोले जो दरवाज़े तो देखा
हर शै थी नहाई
उजली-उजली-सी थी मेरी तन्हाई रे
बदली-बदली-सी बदली
मेरे अँगना में थी छाई
वीरानी रानी बनके मेरे पास आई
अपनी नज़र से मैंने देखी
दुनिया की रंगोली
मुझको बुलाने आई मौसम की टोली
खोली आँखों की खोली
मैंने पाई अपनी बोली
मुझमें ही रहती थी मेरी हमजोली रे
सुन लो, अब न अकेली हूँ मैं
अपनी सहेली हूँ मैं
साथी हूँ अपनी मैं
मन के मंजीरे आज
खनकने लगे
भूले थे चलना
क़दम थरकने लगे
अंग-अंग बाजे मृदंग-सा
सुर मेरे जागे
साँस-साँस से, बाँस-बाँस में
धुन कोई साजे
गाए रे, दिल ये गाने लगा है
मुझको आने लगा है
ख़ुद पे ही एतबार
ख़ुद पे ही एतबार
बादल तक झूले मेरे
पहुँचने लगे
आँखों के आगे गगन
सिमटने लगे
गाल-गाल पे, ताल-ताल दे
छू के हवाएँ
खेत खेत ने, रेत रेत ने
फैला दी बाँहें
आई रे, सिंदूरी सुबह आई
घुलती जाए स्याही
रातों की, रातों की
रातों की, रातों की
- पुस्तक : धूप के सिक्के (पृष्ठ 181)
- रचनाकार : प्रसून जोशी
- प्रकाशन : रूपा पब्लिकेशंस
- संस्करण : 2016
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