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उतरे हैं दो-चार परिंदें

utre hain do chaar parinden

नईम

नईम

उतरे हैं दो-चार परिंदें

नईम

और अधिकनईम

    उतरे हैं दो-चार परिंदें

    अभी पहाड़ों से।

    लगता आनेवाले हैं

    अब मौसम जाड़ों के।

    धुर उत्तर के राजदूत ये, ख़ुद अपनी पहचानें,

    करे कोई छेड़-छाड़ जाने या अनजाने।

    समय साधकर आए हैं—

    ये काले कोसों से,

    दूतावास बनाए इनने—

    झीलों-झाड़ों के।

    तरह-तरह की बोली-बानी, रंगों के मेले,

    ठेठ जनम से तरह-तरह के ख़तरों से खेले।

    निर्भय देवदूत साहस के,

    अपने ही प्रतिमान—

    निकलें, निकल सकें गर हम भी

    घरू तिहाड़ों से।

    चंगेज़ों के नहीं हुए तो, होंगे चेखव के,

    तातारों, कज्जाकों के रिश्ते हैं मालव से।

    महज़ सृजन के हित आए

    ये पाखी यायावर—

    लेना-देना नहीं इन्हें

    सूरत, बलसाड़ों से।

    स्रोत :
    • पुस्तक : लिख सकूँ तो— (पृष्ठ 16)
    • रचनाकार : नईम
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2003

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