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दिया जलता रहा

diya jalta raha

गोपालदास नीरज

गोपालदास नीरज

दिया जलता रहा

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    जी उठे शायद शलभ इस आस में

    रात भर रो रो, दिया जलता रहा।

    थक गया जब प्रार्थना का पुण्य, बल,

    सो गई जब साधना होकर विफल,

    जब धरा ने भी नहीं धीरज दिया,

    व्यंग जब आकाश ने हँसकर किया,

    आग तब पानी बनाने के लिए—

    रात भर रो रो, दिया जलता रहा।

    जी उठे शायद शलभ इस आस में

    रात भर रो रो, दिया जलता रहा।

    बिजलियों का चीर पहने थी दिशा,

    आँधियों के पर लगाए थी निशा,

    पर्वतों की बाँह पकड़े था पवन,

    सिंधु को सिर पर उठाए था गगन,

    सब रुके, पर प्रीति की अर्थी लिए,

    आँसुओं का कारवाँ चलता रहा।

    जी उठे शायद शलभ इस आस में

    रात भर रो रो, दिया जलता रहा।

    काँपता तम, थरथराती लौ रही,

    आग अपनी भी जाती थी सही,

    लग रहा था कल्प-सा हर एक पल

    बन गई थीं सिसकियाँ साँसे विकल,

    पर जाने क्यों उमर की डोर में

    प्राण बँध तिल तिल सदा गलता रहा?

    जी उठे शायद शलभ इस आस में

    रात भर रो रो, दिया जलता रहा।

    सो मरण की नींद निशि फिर फिर जगी,

    शूल के शव पर कली फिर फिर उगी,

    फूल मधुपों से बिछुड़कर भी खिला,

    पंथ पंथी से भटककर भी चला

    पर बिछुड़ कर एक क्षण को जन्म से

    आयु का यौवन सदा ढलता रहा।

    जी उठे शायद शलभ इस आस में

    रात भर रो रो, दिया जलता रहा।

    धूल का आधार हर उपवन लिए,

    मृत्यु से शृंगार हर जीवन किए,

    जो अमर है वह धरती पर रहा,

    मर्त्य का ही भार मिट्टी ने सहा,

    प्रेम को अमरत्व देने को मगर,

    आदमी ख़ुद को सदा छलता रहा।

    जी उठे शायद शलभ इस आस में

    रात भर रो रो, दिया जलता रहा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : गीत जो गाए नहींं (पृष्ठ 8)
    • रचनाकार : गोपालदास नीरज
    • प्रकाशन : डायमंड पॉकेट बुक्स
    • संस्करण : 2019

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