जगती की मंगलमयी उषा बन
jagtii kii ma.nglamyii usha ban
जगती की मंगलमयी उषा बन
करुणा उस दिन आई थी,
जिसके नव गैरिक अंचल की प्राची में भरी ललाई थी।
भय-संकुल रजनी बीत गई,
भव की व्याकुलता दूर गई,
घन-तिमिर-भार के लिए तड़ित स्वर्गीय किरण बन आई थी।
खिलती पँखुरी पंकज-वन की,
खुल रही आँख ऋषीपत्तन की,
दुख की निर्ममता निरख कुसुम-रस के मिस जो भर आई थी।
कल-कल नादिनी बहती-बहती—
प्राणी दु:ख की गाथा कहती—
वरुणा द्रव होकर शांति-वारि शीतलता-सी भर लाई थी।
पुलकित मलयानिल कूलों में,
भरता अंजलि था फूलों में ,
स्वागत था अभया वाणी का, निष्ठुरता लिए बिदाई थी।
उन शांत तपोवन कुंजों में,
कुटियों, तृण-वीरुध पुंजों में,
उटजों में था आलोक भरा कुसुमित लतिका झुक आई थी।
मृग मधुर जुगाली करते से,
खग कलरव में स्वर भरते से,
विपदा से पूछ रहे किसकी पदध्वनि सुनने में आई थी।
प्राची का पथिक चला आता,
नभ पद-पराग से भर जाता,
वे थे पुनीत परमाणु दया ने जिसने सृष्टि बनाई थी।
तप की तारुण्यमयी प्रतिमा,
प्रज्ञापारमिता की गरिमा,
इस व्यथित विश्व की चेतनता गौतम सजीव बन आई थी।
उस पावन दिन की पुण्यमयी,
स्मृति लिए धारा है धैर्यमयी,
जब धर्म-चक्र के सतत-प्रवर्त्तन की प्रसन्न-ध्वनि छाई थी।
युग-युग की नव मानवता को,
विस्तृत वसुधा की विभुता को,
कल्याण संघ की जन्मभूमि आमंत्रित करती आई थी।
स्मृति-चिह्नों की जर्जरता में,
निष्ठुर कर की बर्बरता में,
भूलें हम वह संदेश न जिसने फेरी धर्म दुहाई थी।
- पुस्तक : संपूर्ण काव्य (पृष्ठ 126)
- रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
- प्रकाशन : चिंतन प्रकाशन
- संस्करण : 2003
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