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अन्न का दाना

ann ka dana

धुरवा प्रदेश में एक गाँव था मारेंगा। वहाँ दो भाई रहते थे। बड़े भाई का नाम था भाग और छोटे भाई का नाम था आयतू। दोनों भाई हिल-मिलकर रहते थे। दोनों साथ-साथ एक ही खेत में धान बोया करते थे। जब धान पकता तो दोनों भाई साथ-साथ खेत जाते और धान काट कर ले आते। भादू का विवाह हो चुका था जबकि आयतू अविवाहित था।

एक बार भाटू और आयतू ने अपने खेत में धान बोया। जब धान की फसल पकने का समय आया तो खेत में रहकर फसल की पहरेदारी करना आवश्यक हो गया। मगर उन्हीं दिनों भादू का स्वास्थ्य बिगड़ गया। आयतू ने भादू को घर पर रहकर आराम करने की सलाह दी और स्वयं खेत की रखवाली करने चला गया।

आयतू दिन-रात खेत पर ही रहता। इधर भादू का स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन गिरता ही जा रहा था। भादू की पत्नी ने वैद्य से दवा कराया किंतु भादू को कोई लाभ नहीं हुआ। सिरहा (ओझा) और गुनिया से भी झाड़-फूँक कराया लेकिन स्वास्थ्य था कि सुधरने का नाम ही नहीं ले रहा था। बीमारी से जूझता हुआ भादू एक दिन मर गया। भगवान की आज्ञा से यमदूत आए और भादू के जीव (आत्मा) को अपने साथ लेकर वापस भगवान के घर चल दिए।

आयतू उन दिनों अपने खेत पर था। खेत गाँव से बहुत दूर था। इसलिए आयतू को भादू के मरने का समाचार तत्काल नहीं मिल पाया। उधर यमदूत जब भादू के जीव को अपने साथ लेकर भगवान के घर जा रहे थे तो वे आयतू के खेत से होकर निकले। आयतू ने देखा तो वह चकित रह गया। उसे यह देखकर अचंभा हुआ भादू अपरिचित लोगों के साथ जा रहा है और उसने आयतू की ओर देखा भी नहीं। आयतू के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि आख़िर ये अपरिचित हैं कौन, जिनके साथ भादू जा रहा है?

आयतू उसी समय घर की ओर चल पड़ा। घर पहुँचकर आयतू ने देखा कि उसका भाई भादू मर चुका है और उसके भाई के शव का अंतिम संस्कार किए जाने की तैयारी चल रही है। आयतू को अब समझ में आया कि जिसे उसने खेत के रास्ते जाते हुए देखा था वह उसके भाई का जीव था और उसके भाई के जीव के साथ जो अपरिचित दिखाई दिए थे, वे यमदूत थे।

मगर आयतू ने इस बात की चर्चा किसी से नहीं की।

उधर भादू के जीव को लेकर यमदूत भादू और आयतू के खेत से गुज़र रहे थे तो एक यमदूत ने खेत से धान की एक बाली उखाड़ ली थी। भादू के जीव को लेकर यमदूत भगवान के पास पहुँचे।

‘तुम लोग सही जीव को लाए हो न?’ भगवान ने पूछा।

‘जी स्वामी, हम सही जीव को लाए हैं।’ एक यमदूत ने उत्तर दिया।

‘ठीक है, हम अपने बहीखाते से मिलान कर लेते हैं। इसका नाम?’ भगवान ने पूछा।

‘भादू।’ यमदूत ने उत्तर दिया।

‘इसकी मृत्यु का कारण?’ भगवान ने अगला प्रश्न किया।

‘असाध्य रोग से मरा है यह।’

‘ठीक है। जीव तो सही लाए हो तुम लोग। जाओ इस जीव को हमारे खजाने में जमा कर दो।’ भगवान ने कहा। तभी भगवान की दृष्टि एक यमदूत के हाथ पर पड़ी, ‘अरे, लेकिन तुम्हारे हाथ में ये क्या है?’

‘स्वामी, ये धान की बाली है।’ यमदूत ने उत्तर दिया।

‘ये किसके खेत से उखाड़ लाए तुम?’ भगवान ने फिर प्रश्न किया।

'स्वामी, ये भादू और आयतू के खेत की बाली है।’ यमदूत ने बताया।

‘यह तो अपराध है। घोर अपराध।’ भगवान ने क्रोधित होते हुए कहा, ‘हमने तुम्हें भादू का जीव लाने को भेजा था और तुम उसके जीव के साथ-साथ उसके खेत की धान की बाली भी उखाड़ लाए। तुम्हें भादू का जीव लाने को भेजा था, उसके खेत की बाली नहीं। लाओ इधर दो बाली।’

कहते हुए भगवान ने यमदूत से बाली ले ली और उस बाली के एक-एक दाने गिनने लगे। उस बाली में कुल सौ दाने थे।

‘इस बाली में धान के पूरे सौ दाने हैं। इन्हें तोड़ने के अपराध का दंड यह है कि अब तुम भादू के घर जाओ और उसके भाई आयतू के साथ रह कर तब तक काम करो जब तक आयतू के पास सौ कोठी धान हो जाए।’ भगवान ने यमदूत को दंड देते हुए कहा।

‘जो आज्ञा स्वामी!’ यमदूत ने भगवान को प्रणाम किया और अपना दंड भुगतने चल पड़ा।

उधर आयतू ने अपने भाई भादू की अर्थी को कांधा दिया और श्मशान में जाकर अंतिम संस्कार किया। इसके बाद वह घर लौट आया। आयतू ने देखा कि श्वेत वस्त्रधारी एक अपरिचित आदमी श्मशानघाट से ही उसके पीछे-पीछे घर तक चला आया है।

‘क्यों भाई, तुम कौन हो? मेरे पीछे-पीछे घर तक क्यों चले आए?’ आयतू ने उस आदमी से पूछा।

‘मालिक, मैं दूसरे गाँव से भटकता-भटकता यहाँ चला आया हूँ। मेरे पास कोई काम नहीं है। पेट पालने का कोई साधन नहीं है। यदि आप कृपा करके मुझे कोई काम दे दें तो मैं आभारी रहूँगा।’ उस आदमी ने कहा।

‘तुम क्या काम कर सकते हो? तुम्हें कितनी पगार देनी होगी?’ आयतू ने पूछा।

‘मैं खेती-किसानी के सारे काम बख़ूबी कर सकता हूँ और मुझे आप दो समय भात दे दिया कीजिएगा और साल भर में एकाध जोड़ी कपड़ा पहनने को।’ उस आदमी ने कहा।

‘ठीक है, मुझे स्वीकार है। तुम्हारा नाम क्या है?’ आयतू ने उसे काम देना स्वीकार करते हुए उससे उसका नाम पूछा।

'आप चाहें तो मुझे सत्तू के नाम से पुकार सकते हैं।’ उस आदमी ने कहा।

वस्तुत: वह आदमी वही यमदूत था जिसे आयतू के साथ काम करने का दंड भगवान ने दिया था।

आयतू की स्वीकृति पाकर यमदूत अर्थात् सत्तू, आयतू के साथ काम करने लगा। आयतू और सत्तू खेत में जी-तोड़ मेहनत करते। उनकी मेहनत रंग लाई। एक वर्ष में पाँच कोठी धान की पैदावार हुई। तब तक भादू की बरसी का समय गया। गाँव वालों ने आयतू से कहा कि वह अपनी विधवा भाभी से विवाह कर ले। क्योंकि धुरवा संस्कृति में बड़े भाई के मृत्यु के बाद उसकी विधवा का विवाह छोटे भाई के साथ करा दिया जाता है। गाँव वालों के कहने पर आयतू ने अपनी भाभी के साथ विवाह कर लिया।

इधर सत्तू के रूप में यमदूत धान की सौ कोठियाँ पूरी होने की प्रतीक्षा में अथक श्रम करता रहता। कुछ वर्ष बाद अस्सी कोठी धान होने पर यमदूत ने यह सोचकर अपने मन को तसल्ली दी कि अब बीस कोठी धान शेष रह गया है इसके बाद उसे दंड से मुक्ति मिल जाएगी।

एक दिन आयतू की पत्नी घड़े में पानी भरने नदी गई। नदी से उसने पानी भरा और घड़े को अपने सिर पर उठाए चली रही थी कि सत्तू ने देखा कि उस घड़े में एक प्रेत घुस गया है। सत्तू जानता था कि यह प्रेत आयतू की पत्नी को क्षति पहुँचा सकता है और उसके प्राण तक ले सकता है। लेकिन इसके साथ ही उसे लगा कि यदि वह इस बारे में आयतू की पत्नी को बताएगा तो वह भयभीत हो जाएगी। अत: सत्तू ने एक कंकड़ उठाया और उस घड़े का निशाना साध कर मारा। कंकड़ लगने से घड़ा फूट गया और प्रेत बाहर निकल आया। प्रेत ने सत्तू को देखा तो वह पहचान गया कि यह तो यमदूत है। इसलिए प्रेत डर कर ऐसा भागा कि उसने पलट कर नहीं देखा।

लेकिन आयतू की पत्नी को सत्तू द्वारा इस तरह घड़ा फोड़ना और उसे पानी से भिगो देना अच्छा नहीं लगा। वह सत्तू पर बहुत क्रोधित हुई।

‘क्यों रे सत्तू! तूने यह क्या किया? मेरा घड़ा फोड़ दिया। मेरे पूरे कपड़े भिगो दिए। तुझे मसखरी करने को मैं ही मिली। अपनी मालकिन के साथ क्या कोई ऐसा व्यवहार करता है? क्या तुझे अपनी नौकरी जाने का भय नहीं है?’ आयतू की पत्नी ने सत्तू को बहुत डाँटा।

‘क्षमा करें मालकिन, ग़लती हो गई।’ इतना कहकर सत्तू चुप हो गया।

‘तू बिलकुल जंगली है, तुझे इतना भी नहीं आता है कि अपनी मालकिन से कैसा व्यवहार करना चाहिए।’ आयतू की पत्नी क्रोध में आकर सत्तू को डाँटती रही।

सत्तू चुपचाप उसकी डाँट सुनता रहा किंतु उसने सच्चाई नहीं बताई और काम करने खेत पर चला गया।

समय व्यतीत होता रहा। सत्तू, आयतू के खेतों में काम करता रहा और उसकी धान की कोठियाँ भरता रहा। सत्तू के श्रम से आयतू को इतना लाभ हुआ अपने क्षेत्र का साहूकार बन गया। वह अधिक से अधिक समय अपने काम में व्यस्त रहने लगा। धीरे-धीरे वह समय भी गया जब धान की सौ कोठियाँ भर गईं। संयोगवश उसी दिन आयतू की पत्नी को एक धार्मिक मेले में जाने की इच्छा उत्पन्न हुई।

‘सुनो जी, मैं मेले में जाना चाहती हूँ। तुम मुझे मेला घुमा लाओ। मैं वहाँ नदी में नहाऊँगी, पूजा करूँगी और मेला घूमूँगी।’ आयतू की पत्नी ने आयतू से कहा।

‘देखो, मुझे तो बहुत काम हैं। मैं तुम्हारे साथ नहीं चल सकूँगा।’ आयतू ने अपनी असमर्थता जताई।

‘फिर मैं किसके साथ जाऊँ?’ आयतू की पत्नी तुनक कर बोली।

‘मालिक, यदि आप आदेश करें तो मैं मालकिन के साथ मेला चला जाता हूँ।’ वहीं बैठे सत्तू ने आयतू से कहा।

‘हाँ, यह ठीक रहेगा। सुनो, तुम सत्तू के साथ मेला देखने चली जाओ। यह तुम्हें कोई कष्ट नहीं होने देगा।’ आयतू ने ख़ुश होते हुए कहा।

आयतू की पत्नी भी मान गई। आयतू की पत्नी सत्तू के साथ मेला देखने निकल पड़ी। गाँव के बहुत लोग मेला घूमने जा रहे थे। सत्तू भी अपनी बैलगाड़ी उन्हीं लोगों के पीछे-पीछे हाँकने लगा।

कुछ दूर जाने के बाद जब आयतू की पत्नी ऊँघने लगी तो सत्तू ने बैलगाड़ी दूसरे रास्ते पर डाल दी। सौ कोस चलने के बाद सत्तू ने बैलगाड़ी रोक दी। सामने कीचड और दलदल था।

गाड़ी रुकने से आयतू की पत्नी की नींद खुल गई।

‘क्यों रे सत्तू, हम नदी किनारे पहुँचे क्या?’ आयतू की पत्नी ने पूछा।

‘जी मालकिन! आप गाड़ी से उतर कर नदी में नहा लें।’ सत्तू ने कहा।

‘लेकिन नदी कहाँ है सत्तू? यहाँ तो कीचड़ ही कीचड़ है।’ कीचड़ देखकर आयतू की पत्नी ने चकित होते हुए पूछा।

‘यही तो नदी है मालकिन!’ सत्तू बोला।

आयतू की पत्नी सत्तू की बात सुनकर डर गई। उसे लगा कि सत्तू उसे धोखा देकर यहाँ जंगल में ले आया है जहाँ मेला है और नदी है। उस दिन सत्तू ने घड़ा फोड़ दिया था जिसके कारण उसने सत्तू को बहुत बुरा-भला कहा था, अब आज सत्तू उस दिन का बदला लेना चाहता है।

‘मुझे नहाने की इच्छा नहीं है, सत्तू। अब ऐसा करते हैं कि वापस चलें। मुझे घर की याद रही है।’ आयतू की पत्नी ने कहा।

‘ठीक है मालकिन, लेकिन पहले आप कुछ बना-खा लें। आपको भूख लग आई होगी। फिर हमारे बैल भी थक गए हैं, वे भी तनिक सुस्ता लें।’ सत्तू ने कहा।

मरता क्या करता। आयतू की पत्नी ने लकड़ी पत्तों की आग जलाई। हाँडी चढ़ाई। भात पकाने लगी। भात बनकर तैयार हुआ तो उसने सत्तू को दिया और स्वयं खाया।

‘अब घर चलें, सत्तू?’ आयतू की पत्नी ने सत्तू से कहा। वह मन ही मन बहुत भयभीत थी।

‘चलते हैं। आपने अभी खाना खाया है, तनिक हाथ-मुँह तो धो लीजिए।’ कहते हुए सत्तू ने लोटे में कीच भरी और अपनी मालकिन के सिर पर उंडेल दी। आयतू की पत्नी की आँखों में भी कीच चली गई। उसकी आँखें बंद हो गईं।

‘ये क्या किया तुमने? क्या तुम अब मुझे मारोगे? मैं समझ गई हूँ किं तुम मुझसे उस घड़े वाले दिन का बदला लेना चाहते हो।’ आयतू की पत्नी ने घबरा कर कहा।

‘नहीं मालकिन, आप मुझे ग़लत समझ रही हैं। मैं आपको कोई क्षति पहुँचाना नहीं चाहता हूँ। सुनिए, मैं आपको वास्तविक बात बताता हूँ। मैं एक यमदूत हूँ।’ सत्तू ने कहा।

‘यमदूत!!’ आयतू की पत्नी और अधिक डर गई।

‘आप डरिए नहीं मालकिन, मेरी बात सुनिए। मैं जब आपके पहले पति यानी आयतू के बड़े भाई भादू का जीव लेने आया था तब जीव लेकर जाते समय मैंने आप लोगों के खेत से धान की एक बाली तोड़ ली थी। जो कि मुझे नहीं तोड़नी चाहिए थी। उस बाली में सौ धान थे। भगवान ने मुझे दंड दिया कि जब तक आपके घर में धान की सौ कोठियाँ भर दूँ तब तक मैं आप लोगों के खेत में काम करता रहूँ।

आज सौ कोठियाँ भर गई हैं। अत: आज दंड से मुक्त होने का समय गया है। भगवान के घर लौटने का रास्ता इसी कीचड़ से होकर जाता है। इसीलिए मैं आपको इस रास्ते पर ले आया जिससे मैं भगवान के घर लौट सकूँ। आपकी आँखों में कीच इसलिए भरा क्योंकि यदि आप देखती रहेंगी तो द्वार नहीं खुलेगा। मेरे जाने के बाद जब आप आँख खोलेंगी तो आप स्वयं को अपने घर के आँगन में पाएँगी। इसलिए आप ज़रा भी डरें। अच्छा, अब मेरे जाने का समय हो गया है, प्रणाम!' इतना कह कह सत्तू अर्थात यमदूत दलदल में उतर कर भगवान के घर लौट गया।

आयतू की पत्नी ने जब अपनी आँखें खोलीं तो उसने स्वयं को अपने घर के आँगन में पाया। उसने देखा कि घर के दरवाज़े पर उसकी बैलगाड़ी भी खड़ी हुई है।

‘अरे, तुम बहुत जल्दी लौट आई? मेले में मन नहीं लगा क्या?’ आयतू ने अपनी पत्नी को जल्दी वापस आया देखकर पूछा।

‘मैं मेले गई ही नहीं।’ यह कहते हुए आयतू की पत्नी ने आयतू को सत्तू के बारे पूरा क़िस्सा सुनाया। आयतू सत्तू के बारे में जानकर चकित रह गया। उसने भगवान को धन्यवाद देते हुए अपनी पत्नी से कहा—‘देखा, इसीलिए कहा गया है कि अन्न के एक-एक दाने का महत्व होता है। अन्न का एक दाना भी बेकार नहीं जाना चाहिए।’

इसके बाद आयतू अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सुखपूर्वक रहने लगा।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 54)
  • संपादक : शरद सिंह
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2009

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