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श्रोता को खोजती एक कहानी

shrota ko khojti ek kahani

एक बुढ़िया ने रथसप्तमी का व्रत रखा। माघ शुक्ला सप्तमी रविवार को व्रत रखने वाला स्नान और पूजा करने के बाद किसी को सूरज भगवान की कथा सुनाता है। सो बुढ़िया मुट्ठी में हल्दी से रंगे चावल लेकर किसी को ढूँढ़ने लगी जिसे वे पवित्र चावल देकर कथा सुना सके। पर किसी के भी पास उसकी कथा सुनने का वक़्त था।

उसके बेटों को राजा के दरबार में जाने की जल्दी थी। उन्हें पहले ही देर हो गई थी और वे राजा की डाँट नहीं सुनना चाहते थे। बेटों से निराश होकर वह पोतों के पास गई। यह उनके पाठशाला जाने का वक़्त था। उन्होंने भी बुढ़िया की कथा सुनने से मना कर दिया। तब वह बहू के पास गई। उसे भी दूधमुँहे बेटे के मारे दम मारने की फ़ुर्सत नहीं थी।

तब बुढ़िया नदी के घाट पर गई। वहाँ धोबिनें कपड़े धो रही थीं। उसने उनसे आग्रह किया कि वे उससे माघ के रविवार को कही जाने वाली कथा सुनें। उन्होंने अपना काम ख़त्मकर लिया था और वे जल्दी से जल्दी घर पहुँचना चाहती थीं। सो उन्होंने भी कथा सुनने से मनाकर दिया। बुढ़िया कई जगह गई, कइयों से उसने कथा सुनने की विनती की, पर उसे एक भी श्रोता नहीं मिला। ब्राह्मण, लकड़हारा, गांछा, धोबी, कुम्हार—जिससे भी उसने बात की उनमें से कोई भी उसकी कथा सुनने के लिए एकाध घड़ी निकालने को तैयार नहीं हुआ।

जिसने भी माघ के रविवार की कथा सुनने से इंकार किया उसे उसका फल भुगतना पड़ा। उसके बेटों को दरबार में दंड मिला। बहू का दूधमुँहा बच्चा ऐसा बीमार पड़ा कि मरता-मरता बचा। पोतों को पाठशाला में गुरुजी की मार खानी पड़ी। धोबिनों की सासों ने जमकर उनकी खिंचाई की। ब्राह्मण को उस दिन कोई भोजन कराने वाला नहीं मिला। टोकरियाँ बनाते समय गांछों की अँगुलियों में छिपटियाँ घुस गईं। और भरसक चेष्टा के बावजूद उस दिन कुम्हार चाक से एक भी ढंग का बर्तन नहीं उतार सका।

इनके साथ जो बीती उससे बुढ़िया अनजान थी। वह उदास थी कि उसे कोई कथा सुनने वाला नहीं मिला। पर उसने धीरज नहीं खोया। अंततः वह पीछे वाले मोहल्ले में गई। वहाँ उसे बालदिया जाति की एक औरत मिली। वह उसकी कथा सुनने को राज़ी थी, पर वह बहुत भूखी थी। इसलिए पहले बुढ़िया ने उसे खीर खिलाए, तभी वह उसकी कथा सुन सकेगी। बुढ़िया ने घर जाकर खीर बनाई और तसला भरकर गर्भवती औरत के लिए लाई। औरत बहुत ख़ुश हुई। वह सारी खीर चट कर गई। पर इससे पहले कि बुढ़िया कथा सुनाना आरंभ करती वह नींद में डूब गई—अगाढ़, स्वप्नरहित नींद। बुढ़िया हाथ में पीले चावल लिए उसके जागने का इंतज़ार करने लगी। अचानक उसने गर्भवती औरत के पेट की बच्ची को कहते सुना, “तुम मुझे कथा क्यों नहीं सुनाती? मैं सुनूँगी। पीले चावल माँ की नाभि में रख दो और मुझे कथा सुनाओ!”

बुढ़िया खिल उठी। उसने सो रही औरत की नाभि को हौले से पवित्र चावलों से भरा और उसके उभरे हुए पेट की ओर मुँह करके गर्भ की बच्ची को माघ के रविवार की कथा सुनाने लगी। कथा सुनाने के उपरांत उसने एक लोरी सुनाई जिसका आशय था, “जहाँ तुम्हारे चरण पड़ेंगे वहाँ उजड़े गाँव आबाद हो जाएँगे। बिनौले मोतियों में बदल जाएँगे। सूखे पेड़ फलों से लद जाएँगे। बूढ़ी गायें भी दूध देने लगेंगी। बाँझ औरतों की गोद हरी हो जाएगी। खोया हुआ ख़ज़ना मिल जाएगा। और तो और, मुर्दे भी जी उठेंगे। धीव, तुममें ऐसा तेज होगा कि राजा भी तुम पर कृपालु रहेंगे।”

उसकी कथा और लोरी के ख़त्म होते ही बालदिया औरत की आँख खुल गई। आँख खुलते ही उसने बुढ़िया से कथा सुनाने को कहा। बुढ़िया ने कहा, “तुम्हारे पेट की बच्ची ने मेरी कथा सुन ली। वह बहुत भागधारी होगी। बच्ची के जन्म पर मुझे ख़बर करना।” इतना कहकर बुढ़िया घर लौट आई।

चारेक हफ़्तों बाद बुढ़िया को बालदिया औरत के बच्ची होने का समाचार मिला। रिवाज़ के मुताबिक़ बुढ़िया नवजात बच्ची के लिए साड़ी और कटोरी में अरंडी का तेल लेकर अदेर बालदियों के डेरे पर पहुँची। बच्ची को वह निकट के जंगल में ले गई। पेड़ की डाल से साड़ी बाँधकर उसका झूला बनाया और उसमें बच्ची को सुला दिया। उसने पेड़ों से कहा कि वे उसे धीमे-धीमे झूला झुलाएँ और चिड़ियों से उसे लोरी सुनाने की विनती की। बच्ची की माँ इससे अपने धँधे पर जाने के लिए बिलकुल मुक्त हो गईं। पेड़ और चिड़ियाँ बच्ची की देखभाल जो कर रहे थे। फिर बुढ़िया अपने घर चली गई।

उन्हीं दिनों वहाँ के राजा का उस जंगल से गुज़रना हुआ। उसने चिड़ियों की लोरी और बच्ची का रोना सुना। उसे कौतूहल हुआ। आवाज़ की दिशा में खोजते-खोजते वह उस स्थान पर पहुँचा जहाँ डाल से झूला बँधा हुआ था और उसके इर्द-गिर्द चिड़ियाँ लोरी गा रही थीं। चिड़ियों ने राजा से कहा, “यह बच्ची तुम्हारी पत्नी और हमारी माँ है। इसे अपने घर ले जाओ। जब यह बड़ी हो जाए तो इससे ब्याह कर लेना।”

बच्ची को पालकी में लिटाकर वह उसे अपने साथ ले गया। वे एक वीरान गाँव से होकर जा रहे थे कि वह चहल-पहल भरी ख़ूबसूरत बस्ती में बदल गया। रास्ते में वे कपास के एक खेत के पास सुस्ताने के लिए रुके। खेत के सारे बिनौले मोती बन गए। जिन दरिद्र गाँवों से वे गुज़रे वहाँ की बूढ़ी गायें दूध देने लगीं। सूखे पेड़ हरे हो गए और देखते-देखते फलों से लद गए। और राजमहल में राजा की बाँझ रानी की गोद उसी बरस भर गई।

बालदियों की बच्ची धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। उसके आने से वह राज्य दिनोंदिन समृद्ध होता चला गया। सही वक़्त पर राजा ने उससे विवाह कर लिया।

आप कल्पना कर सकते हैं कि बड़ी रानी इससे क़तई ख़ुश नहीं थी। सुंदर युवा नई रानी की ओर राजा का झुकाव देखकर ईर्ष्या से उसका हृदय फटा जा रहा था। जाने कहाँ से मरी यह उसकी छाती पर मूँग दलने के लिए! तो उसकी जात का पता है और माँ-बाप का!

एक दिन ज़बरदस्त ईर्ष्या के आवेग में उसने महल के तमाम गहने और हीरे-मोती संदूक़ची में रखे और संदूक़ची को समुद्र में फिंकवा दिया। कुछ दिन बाद मछुआरों ने एक बहुत बड़ी मछली पकड़ी। वह मछली उन्होंने बड़ी रानी को भेंट की। रानी ने मछली को सूँघा और कहा कि उससे बदबू रही है। नाक-भौं सिकोड़ते हुए उसने मछली छोटी रानी के पास भिजवा दी। इतनी बड़ी मछली को देखकर छोटी रानी बहुत ख़ुश हुई। उसने उसे अपनी आँखों के आगे कटवाने और पकाने का निश्चय किया। रसोइयों ने उसे काटा तो उसमें से वह संदूक़ची निकली जिसे बड़ी रानी ने समुद्र में फिंकवा दिया था। राजा ने यह सुना तो उसे चिड़ियों की लोरी याद गई। उस लोरी में छोटी रानी की तमाम ख़ूबियाँ गिनवाई गई थीं। उजड़े गाँव का आबाद होना, बिनौलों का मोती बनना, बूढ़ी गायों का दूध देना और सूखे पेड़ों का फलों से लदना राजा ने ख़ुद देखा था। और अब गहनों की खोई हुई संदूक़ची चमत्कारिक रूप से मिल गई। हाँ, मुर्दे को जिलाने की शक्ति का पता लगना अभी बाक़ी था। सो नई रानी के आवास में भोजन करके वह बड़ी रानी के शयनकक्ष में गया और चुपके से ज़हर खाकर चिरनिद्रा में सो गया।

बड़ी रानी विक्षिप्त-सी हो गई। अपने साथ सती होने के लिए उसने छोटी रानी को भी कहलवा दिया। शव को अंतिम संस्कार के लिए तैयार किया जाने लगा। छोटी रानी सती होने के लिए ज़रूरी कर्मकांड पूरे करने लगी। तभी एक ब्राह्मण आया और छोटी रानी से पाँव धोने के लिए पानी माँगा। उसने छोटी रानी से भी अपने पाँव धोने को कहा। फिर उसने पीने के लिए पानी माँगा। उसने रानी से भी थोड़ा पानी पीने को कहा। फिर उसने रानी से कहा कि वह सर से पाँव तक स्नान करना चाहता है, इसके लिए वह आवश्यक प्रबंध कर दे। उसने रानी को भी स्नान करने का निर्देश दिया। स्नान के बाद उसने अपने शरीर पर लगाने के लिए चंदनसार माँगा और रानी से अपने शरीर पर हल्दी का लेप लगाने को कहा। फिर उसने अपने माथे पर कुमकुम का तिलक लगाया और रानी से कहा कि वह अपने कुमकुम की बिंदी लगाए। फिर उसने अपने लिए भोजन मँगवाया और रानी से भी कुछ खा लेने को कहा। अंत में भोजन और कर्मकांड की समाप्ति के प्रतीक स्वरूप पान-सुपारी मँगवाई। उसने स्वयं पान खाया और रानी को भी दिया। इस तरह उसने रानी से जो-जो करवाया वह पुरोहित के नाते स्वयं भी किया। यह सब करते हुए रानी का हृदय दुख से फटा जा रहा था। वह जल्दी से जल्दी श्मशान पहुँच जाना चाहती थी जहाँ उसके पति का शव जलाए जाने की प्रतीक्षा कर रहा था। पर ब्राह्मण ने उसे तब तक नहीं छोड़ा जब तक उसने वह सब नहीं कर लिया जो उसे करना चाहिए। उसके बाद उसने बताया कि वह सूरज भगवान आदित्यनारायण है जिसकी कहानी बुढ़िया ने रानी को तब सुनाई थी जब वह माँ के गर्भ में थी। उसने रानी को हल्दी से रंगे कुछ चावल देते हुए कहा कि ये चावल वह पति के शव पर डाल दे। इतना कहकर वह अदृश्य हो गया।

छोटी रानी भागती हुई श्मशान पहुँची। सब उसकी राह देख रहे थे। वह राजा के शव के पास गई और वे चावल उस पर फेंके। राजा तुरंत अर्थी पर उठ बैठा। मानो वह अर्थी पर नहीं उस पलंग पर लेटा हो जहाँ वह चिरनिद्रा में सो गया था। राजा ने और तमाम लोगों ने रानी से पूछा कि कैसे वह चमत्कारिक रूप से जी उठा? तब रानी ने बताया कि यह माघ मास के रविवार की कथा सुनने का प्रताप है। यह कथा उसने माँ के गर्भ में सुनी थी। उसी की पुण्याई से उसे ये जादुई शक्तियाँ मिलीं।

राजा स्तब्ध रह गया। कहने लगा, “यदि केवल कहानी सुनने से इतना कुछ हो सकता है तो विधि-विधान पूर्वक रथसप्तमी का व्रत करने से उसका कितना अधिक प्रभाव होगा!” उसने रानियों को व्रत रखने और उसके लिए आवश्यक प्रबंध करने का आदेश दिया। उस माघ सुदी सप्तमी रविवार को दोनों रानियों ने जो व्रत रखा वह आज इस घोर कलयुग में भी उच्च जाति की स्त्रियाँ रखती हैं।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 25)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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