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उपकारी साँप

upkari saanp

एक बूढ़ा व्यापारी था। उसके सात लड़के थे। छह लड़कों का विवाह हो चुका था, इसलिए उसकी छह बहुएँ थीं। अभी छोटा लड़का कुँआरा था। छहों लड़के ख़ूब योग्य थे। सब कामों में पारंगत। छोटा लड़का किसी की बात नहीं सुनता था। खेतीबाड़ी या फिर व्यापार, कोई भी काम उसे नहीं आता था। खाना खाकर घर से निकल जाता तो उधर ही रहता। घर के हानि-लाभ से उसका कोई मतलब नहीं था। दूसरों के कामों में टाँग अड़ाने वाले कुछ दुष्ट-प्रवृत्ति के लड़के उसके मित्र थे। बूढ़ा उसे समझाते हुए कहता, “सुन तू किस घर का लड़का है? क्या कर रहा है, तुझे कुछ पता है? लोग क्या कुछ कह रहे हैं, जानता भी है? यह सब क्या तुझे ठीक लग रहा है? देख अच्छे कामों में मन लगा, अच्छा इंसान बन। मैं आज हूँ, कल नहीं रहूँगा। तेरी ही भलाई के लिए कह रहा हूँ। अभी तुझे कुछ समझ में नहीं रहा है, बाद में रोएगा, बिलखेगा तो भी कोई फ़ायदा नहीं होगा।” पर वह पिता की बात एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देता। भैंस के आगे बीन बजाने जैसी हालत रहती उसकी। बूढ़ा सोचता सबसे छोटा होने के कारण लाड़-प्यार से इसे पाला, इसलिए इसका यह हाल हुआ। ईश्वर से प्रार्थना करता, हे प्रभु! मेरे बेटे को सद्बुद्धि दे।

बूढ़े ने लड़के को पाठशाला भेजा। शिक्षक का डंडा पड़ेगा, तो शायद बात मानने लगे, ऐसा सोचा। एक-दो बार शिक्षक से मार खाकर उजबक ने कुछ नहीं कहा। फिर एक दिन शिक्षक के आसन में कभी काँटे बिछाए तो कभी उनके पानी में कंडुर को घोलकर रखा। इतने में शिक्षक भाग खड़ा हुआ।

उसके बाद अखाड़े का अड्डा जमने लगा। कुश्ती के पैंतरे चलने लगे। बूढ़े ने समझाया, “अरे इस सबमें हमारा कोई सरोकार नहीं है। यह हमारा ख़ानदानी व्यवसाय नहीं है, फिर क्यों तू इसमें मग़ज़मारी कर रहा है?” निर्बुद्धिआ कहता, “भैया तो व्यवसाय कर रहे हैं, तो फिर मैं और क्या ज़्यादा उखाड़ लूँगा?”

एक दिन बूढ़े व्यापारी ने सोचा, अगर इसका विवाह करा दूँ तो शायद इसका विचार बदल जाए। गले में ढोल बाँध देने पर ख़ुद ही बजाना सीख जाएगा। फिर उजबक का विवाह हो गया। पर वही जस का तस। ढाक के तीन पात। उसे सुधरना नहीं था तो सुधरा ही नहीं।

पत्नी एक-दो बार उससे बोली, “सुनिए, आप तो कोई काम-धँधा कर नहीं रहे हैं। भैया-भाभी का घर है, कितने दिन आपको झेलेंगे?” पर इसका उल्टा परिणाम हुआ। वह और मनमानी करने लगा। उजबक से डरकर भाई-भाभी उसे कुछ नहीं कहते पर उसकी पत्नी को बातें सुनाते।

लेकिन ससुर छोटी बहू को बहुत चाहता था। पर दुर्भाग्य से ससुर की मौत जल्दी हो गई। घर के सारे काम को मिल-जुलकर करके सारे जेठानियों ने छोटी बहू पर काम का सारा बोझ डाल दिया। कौए के बोलने पर जो वह उठती तो काम ख़त्म करते आधी रात बीत जाती। पति तो किसी काम का था नहीं। ससुर उसे मानते थे, पर वह भी परलोक सिधार गए। किसे अपना दुखड़ा कहती? कौन सुनता उसकी गुहार? आँखों से धार-धार आँसू झरते। यह जन्म क्या ऐसे ही व्यर्थ हो जाएगा?

छह भाई एक दिन बैठकर विचार करने लगे कि हम तो हाड़-तोड़ मेहनत कर कमाएँगे और यह निठल्ला बैठकर भोजन करता रहेगा और जब हिस्से की बात आएगी, तो अपना हिस्सा लेने के लिए अड़ जाएगा। अभी से अगर इस बात पर विचार किया जाए तो बात हाथ से निकल जाएगी और हम हाथ मलते रह जाएँगे। हम चुप हैं, इसलिए उसका मुँह का ज़ोर बढ़ रहा है। अभी वह बहुत उछल रहा है। उसे अगर अलग कर देंगे तो फिर काम नहीं करके जाएगा कहाँ?

एक दिन उजबक को छह भाइयों ने बुलाकर समझाया, “अगर हमारी बात तुझे नहीं सुननी है तो तू हमसे अलग हो जा।” भाइयों की बात सुनकर उजबक का मन जाने कैसा हो गया। बात यहाँ तक पहुँच जाएगी, उसे इसका भान नहीं था। वह छह भाइयों के साथ जहाज़ लेकर व्यापार करने निकला। सातों बहुओं ने जहाज़ की पूजा-अर्चना आरती करके उन्हें विदा किया।

छोटी बहू का पति तो नकारा था। जैसे नए ढलान की ओर पानी बहता है, वैसे ही उसके ऊपर घर के काम का पूरा बोझ पड़ने लगा।

एक दिन हुआ क्या कि शाम के समय छह बहुएँ नहाने के लिए पोखर की तरफ़ गईं। वहाँ सरसराने की आवाज़ सुनकर किसी बहू को लगा कि कोई मछली है—ऐसा सोचकर वह ख़ुश हो गई। एक बहू घर वापस लौटकर मछली पकड़ने वाली टोकरी ले आई। उसमें टोकरी भर मछली पकड़कर सब ख़ुशी मन से घर लौटीं और छोटी बहू को मछली देकर मसालेदार मछली बनाने के लिए कहा।

छोटी बहू मछली काटने से पहले उस पर राख मलने के लिए चूल्हे में से राख निकालने लगी। तभी चूल्हे की आग की रोशनी में देखा, तो अरे! यह क्या? साँप के बच्चे! मछली समझकर साँप के बच्चे पकड़ लाए हैं। इनके माता-पिता को यह बात पता चलेगी तो क्या हमें त्रिभुवन में कहीं रहने के लिए ठिकाना मिल पाएगा? आते-जाते कहीं भी राह में डस लेंगे। अगर बड़े साँप होंगे तो टप से निगल जाएँगे।

अँधेरे में जेठानियों से यह ग़लती हो गई है, ऐसा कहने से उन्हें विश्वास नहीं होगा। इसलिए छोटी बहू मछुआरे-मछुआरिन को सूपा भर चावल देकर सूपा भर मछली ले आई और साँप के बच्चों को यह कहते हुए वापस पोखर में डाल दिया कि इसमें मेरा कोई दोष नहीं,। वापस घर लौटकर मछली पकाकर छह जेठानियों को खाने को दिया। साँप का बच्चा उठा लाए थे, यह बात किसी से नहीं बोली। रात में हल्की नींद आई ही थी कि छोटी बहू ने सपना देखा कि कई साँप चारों तरफ़ फूँ-फूँ करते घूम रहे हैं। हथेली भर की जीभ निकाले, लाल-लाल आँखें करके पूछ रहे हैं, “क्यों हमारे बच्चों के शरीर पर अपना हाथ लगाया? क्यों? पता नहीं है हम क्या बला हैं? हाथी, बाघ, सिंह कौन है ऐसा इस संसार में जो हमसे नहीं डरता है? छोटी बहू की नींद एकदम से उचट गई। फिर रात भर उसे और नींद नहीं आई। थोड़ी-सी भी खस-खस की आवाज़ होती तो सोचती साँप गए!

रात के छह पहर में साँपों के माता-पिता घर लौटे। बच्चों ने उन्हें घेर लिया और कहा, “हमें आप ज़िंदा नहीं देख पाते। व्यापारी की छह बहुओं के पेट में हम होते। मछली समझकर वे सब हमें घर ले गईं थीं, सिर्फ़ छोटी बहू के कारण हमारी जान बच गई।

साँपों के पिता ने कहा, “हम सतयुग के हैं, सत् में रहते हैं, हमारी भलाई करने वालों का हम उपकार करते हैं, नुक़सान करने वालों को खा जाते हैं। छोटी बहू का ऋण हम उतारेंगे।”

उसके दूसरे दिन खड़ी दुपहर थी। खाना-पीना ख़त्म हो चुका था। छोटी बहू बर्तन साफ़ कर रही थी, तभी कोई व्यक्ति आँगन में दिखा। सभी उस अनजान व्यक्ति का चेहरा देखते रहे। वह भी उन सब का चेहरा देखता रहा, फिर बोला, “मैं छोटी बहू के मायके से आया हूँ। मैं उसका भाई हूँ। मैं बाहर गया था, अभी लौटा हूँ। छोटी बहू को अपने साथ घर ले जाने के लिए आया हूँ।

छोटी बहू ने अपने भाई को पहले कभी नहीं देखा था। उसका कोई एक भाई बाहर कहीं गया था, यह उसने सुना भर था। मायके जाने की बात सुनकर उसका मन धक-धक करने लगा। जेठानियों से मनुहार करके वह भाई के साथ अपने मायके चल पड़ी।

भाई आगे-आगे चल रहा था। अचानक छोटी बहू के पाँव वहीं के वहीं जम गए। भाई कहाँ गया? हे माँ! यह तो साँपों का राजा है। बीस हाथ लंबा साँप रास्ते में आगे बढ़ रहा था। उसे देखकर छोटी बहू का ख़ून जम गया, पाँव लड़खड़ाने लगे। अब तो प्राण गया, निगल ही जाएगा यह तो!

नागराज ने कुछ दूर जाने के बाद देखा कि छोटी बहू एक जगह खड़ी हो गई है। तब वह फिर भाई का रूप धरकर उसके पास आया और बोला, “मैं नागराज हूँ। तूने मेरे बच्चों की जान बचाई, इसलिए मैं तेरा उपकार करने आया हूँ। जेठानियाँ तेरे ऊपर अत्याचार कर रही हैं। कहेगी तो अभी सबको एक-एक करके निगल जाऊँगा। छोटी बहू बोली, “कुछ भी हो, वे मेरी जेठानियाँ हैं। उनके श्रीअंग में दाँत भी ना लगाना।”

उसके बाद देखते-देखते ज़मीन के दो टुकड़े हो गए। नागराज छोटी बहू को लेकर नीचे उतरा। यह क्या? मणि, हीरे, माणिक्य चारों तरफ़ चमक रहे हैं। कितने तरह के पेड़-पौधों से सजा आलीशान महल है। छोटी बहू वहाँ कुछ दिन रही। उसके बाद भाई से बोली, “मुझे अब ससुराल छोड़ आओ।” नागराज ने हीरा, नीला, मोती के अलंकारों से उसे सजाया और साथ में रत्न, हीरे, नीला देकर उसे घर छोड़ आया।

छोटी देवरानी को देखकर जेठानियों की आँखें खुली की खुली रह गईं। नागराज को साथ देखकर किसी की भी ज़बान नहीं खुली।

उसी दिन से छोटी बहू आनंद से रहने लगी। सातों भाई व्यापार करके वापस लौटे। घर में धन-रत्न देखकर चकित रह गए। उजबक भी अब बदल गया था। काम में मन लगाने लगा था। सभी ख़ूब हँसी-ख़ुशी से रहने लगे।

स्रोत :
  • पुस्तक : ओड़िशा की लोककथाएँ (पृष्ठ 197)
  • संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2017
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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