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हाम-राय घोड़ा

haam raay ghoDa

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एक ग़रीब ब्राह्मण था। दिन में तीन जून में सिर्फ़ एक जून उसका चूल्हा जलता। एक दिन ब्राह्मणी बोली, “मैं और कितने दिन माँड़ से काम चलाऊँ? शरीर में सोने या चाँदी का एक भी गहना नहीं है। घर में बैठे रहोगे तो काम कैसे चलेगा? तुम जाओ रोज़गार का कोई उपाय करो।”

ब्राह्मण बोला, “अरी, मैं तो हूँ मूर्ख। किस हुनर के लिए राजा मुझे रुपया-सोना देंगे? ठीक है, जब तू कह रही है तो कुछ करता हूँ।”

ब्राह्मण इतना कहकर राजा के पास पहुँचा। राजा उस समय तबेले में सफ़ेद, काले, केसर, चितकबरे घोड़ों का मुआयना करते हुए कभी पक्षीराज घोड़े को घास खिला रहे थे तो कभी छोटे घोड़े की पीठ सहला रहे थे और कभी युद्ध में जाने वाले घोड़े और रथ खींचने वाले घोड़ों की जाँच-परख कर रहे थे। ठीक उसी समय ब्राह्मण पहुँचा और बोला, “यह घोड़ा पूर्व जन्म में इंसान था, पंडित था। दुर्भाग्य के चलते घोड़े के रूप में जन्म लिया। यह गीत-गोविंद सीख सकेगा।”

राजा ने पूछा, “क्या कहा पंडित, घोड़ा गीत-गोविंद गा पाएगा?

ब्राह्मण बोला, “चार महीने में इस घोड़े को गीत-गोविंद के चार अध्याय सिखा दूँगा। यह क्या साधारण घोड़ों की तरह चना, घास, चारा खाएगा? यह तो आटा, दूध, घी, सब्ज़ी, काँदा खाएगा।”

राजा ने सोचा कि अपने सारे बंधु-बांधवों को बुलाएँगे, सभी के सामने घोड़ा 'गीत-गोविंद' गाकर सुनाएगा। कितना मज़ा आएगा।

राजा ने साईस के हाथ में कमल के फूल की तरह सफ़ेद घोड़े को पंडित के घर भेज दिया। गाड़ी में भरकर आटा, घी पंडित के घर भेजा जाने लगा। पंडित, पंडिताइन खा-पीकर मज़े से डकार लेने लगे।

घोड़े के हिस्से वह सब मालमत्ता कुछ नहीं आया। उसके हिस्से दो पैसों का घास-फूस ही आया। राजा के घर में था तो उसकी कितनी देखभाल होती थी। जिसके चिकने तन से कभी मक्खी फिसल जाती थी, वही घोड़ा अब खाने को पाकर सूखकर काँटा होने लगा। बेचारा बिना ज़बान का, बोले तो कैसे बोले? नहीं तो चीख़-चिल्लाकर अपना दुःख बताता। अब तो हिनहिनाने के लिए भी ताक़त नहीं थी उसमें।

कुछ दिन के अंदर घोड़े का ऐसा हाल देखकर पंडिताइन का हलक़ सूख गया। बात अगर राजा के कान तक पहुँच गई तो क्या तीनों लोक में कहीं कोई ठौर मिलेगा?

बीच-बीच में ब्राह्मण जाकर राजा को कहता, “महाराज, एक अध्याय कंठस्थ हो गया है। पर अभी बोलने का अंदाज़ शुद्ध नहीं हो पाया है। ठीक चार महीने पूरे हो जाएँगे तो मैं घोड़े को लाकर हुज़ूर के सामने उससे गीत-गोविंद बुलवाऊँगा।”

स्त्री का मन आतंकित हो गया। एक दिन वह बोली, “सुनिए! यह आप क्या कर रहे हैं?”

ब्राह्मण बोला, “क्या कर रहा हूँ? उसे गीत-गोविंद सिखा रहा हूँ और क्या!”

चार महीने के अंदर अगर मैं मर जाता हूँ तो राजा मेरा क्या बिगाड़ लेंगे? अगर राजा ख़ुद मर जाते हैं तो मुझे सज़ा कौन देगा? और अगर घोड़ा मर जाएगा तो मुझे यह कहने का मौक़ा मिल जाएगा कि ओहो! कितनी मुश्किल से दो अध्याय सिखा पाया था। सब व्यर्थ चला गया। 'गीत-गोविंद' सुनने के बाद राजा ज़रूर मुझे एक लाख रुपया पुरस्कार में देते। मेरी ही क़िस्मत ख़राब है तो फिर रुपया कैसे मिल जाता? और उस जैसा गुणवान घोड़ा भी कहाँ मिलेगा, जो इंसान की तरह बात कर पाएगा, गीत श्लोक बोल पाएगा? क़िस्मत से कैसे तो एक मिल गया था, वह भी मर गया।”

मेरी कहानी हुई ख़त्म।

स्रोत :
  • पुस्तक : ओड़िशा की लोककथाएँ (पृष्ठ 195)
  • संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2017

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