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मुफ़्त ही मुफ़्त

muft hi muft

ममता पांडेया

ममता पांडेया

मुफ़्त ही मुफ़्त

ममता पांडेया

और अधिकममता पांडेया

    नोट

    प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा चौथी के पाठ्यक्रम में शामिल है।

    एक दिन भीखूभाई का मन नारियल खाने का हुआ। ताज़ा-मुलायम, कसा हुआ, शक्कर के साथ। म्म्म्म! उसके बारे में सोचते ही भीखूभाई ने अपने होंठों को चटकारा, “वाह क्या मीठा-मीठा सा स्वाद होगा!”

    लेकिन एक छोटी-सी समस्या थी। घर में तो एक भी नारियल नहीं था।

    “ओहो! अब मुझे बाज़ार जाना पड़ेगा,” उन्होंने अपनी पत्नी लाभुबेन से कहा।

    लाभुबेन अपने कंधे उचक उचकाकर बोलीं, “खाना है तो जाना है।”

    एक समस्या और थी।

    भीखूभाई ने कहा, “पैसे ख़र्च करने पड़ेंगे,”

    लाभुबेन बोली, “हाँ। पैसे तो ख़र्च करने पड़ेंगे।”

    अब तक तो तुम्हें पता लग गया होगा कि भीखूभाई ज़रा कंजूस थे। वे सीधे खेत में बूढ़े बरगद के नीचे जाकर बैठ गए और सोचने लगे, “क्या करूँ? मैं क्या करूँ?”

    मगर नारियल खाने के लिए जी ऐसा ललचाया कि वे जल्दी घर वापस लौटकर लाभुबेन से बोले, “अच्छा, मैं बाज़ार तक हो आता हूँ। पता तो चले कि नारियल आजकल कितने में बिक रहे हैं।”

    जूते पहनकर, छड़ी उठाकर, भीखूभाई निकल पड़े।

    बाज़ार में लोग अपने-अपने कामों में लगे थे। भीखूभाई ने इधर कुछ देखा, उधर कुछ उठाया और दाम पूछा। देखते-पूछते, वे नारियलवाले के पास पहुँच गए।

    “ऐ नारियलवाले, नारियल कितने में दोगे?” भीखूभाई ने पूछा।

    नारियलवाले ने कहा, “बस, दो रुपए में काका,” “बस, दो रुपए! “भीखूभाई ने आँखें फैलाकर कहा, “बहुत ज़्यादा है। “एक रुपए में दे दो।”

    नारियलवाले ने कहा, “ना जी ना। दो रुपए, सही दाम। ले लो या छोड़ दो,” “ठीक है! ठीक है!” भीखूभाई बड़बड़ाए।

    अच्छा तो बताओ, एक रुपए में कहाँ मिलेगा?”

    नारियलवाले ने कहा, “यहाँ से थोड़ी दूर जो मंडी है, वहाँ शायद मिल जाए।”

    सो भीखूभाई उसी तरफ़ चल पड़े। “चलो देख लेते हैं,” वे अपने आप से बोले, “टहलने का मौक़ा है और रुपए भर बचत भी हो जाएगी।” ख़ुशी से घुरघुराते भीखूभाई ने छड़ी को ज़मीन पर थपथपाया।

    मंडी में कोलाहल फैला हुआ था। व्यापारियों की ऊँची-ऊँची आवाज़े गूँज रही थीं।

    “बटाटा-आलू, बटाटा-आलू! काँदा-प्याज़ काँदा-प्याज़! गाजर गाजर गाजर! कोबी-बंदगोभी कोबी-बंदगोभी!”

    माथे का पसीना पोंछकर भीखूभाई ने इधर-उधर ताका। नारियलवाले को देखकर पूछा, “अरे भाई, एक नारियल कितने में दोगे?”

    “सिर्फ़ एक रुपया, काका,” नारियलवाले ने जवाब दिया, “जो चाहो ले जाओ। जल्दी।”

    “शू छे भाई?” भीखूभाई ने कहा, “यह क्या? मैं इतनी दूर से आया हूँ और तुम पूरा एक रुपया माँग रहे हो। पचास पैसे काफ़ी हैं। मैं इस नारियल को लेता हूँ और तुम, यह लो, पकड़ो, पचास पैसे।”

    नारियलवाले ने झट भीखूभाई के हाथ से नारियल को छीन लिया और बोला, “माफ़ करो, काका। एक रुपया या फिर कुछ नहीं।” लेकिन भीखूभाई का निराश चेहरा देखकर बोला, “बंदरगाह पर चले जाओ, हो सकता है वहाँ तुम्हें पचास पैसे में मिल जाए।”

    भीखूभाई अपनी छड़ी से टेक लगाकर सोचने लगे, “आख़िर पचास पैसे तो पूरे पचास पैसे हैं। वैसे भी मेरी टाँगों में अभी भी दम है।”

    पैरों को घसीटते हुए, भीखूभाई चलने लगे। हर दो क़दम पर रुककर, जेब में से बड़ा सफ़ेद रुमाल निकालकर, वे अपना पसीना पोंछते।

    सागर के किनारे एक नाववाला बैठा था। उसके सामने दो-चार नारियल पड़े थे। “अरे भाई, एक नारियल कितने में दोगे?” भीखूभाई ने पूछा और कहा, “ये तो काफ़ी अच्छे दिखते हैं।”

    “काका, यह कोई पूछने वाली बात है? केवल पचास पैसे” नाववाले ने कहा।

    “पचास पैसे!” भीखूभाई मानो हैरानी से हक्के-बक्के हो गए। “इतनी दूर से पैदल आया हूँ। इतना थक गया हूँ और तुम कहते हो पचास पैसे? मेरी मेहनत बेकार हो गई। ना भाई ना! पचास पैसे बहुत ज़्यादा है। मैं तुम्हें पच्चीस पैसे दूँगा। यह लो, रख लो।” ऐसा कहते हुए, भीखूभाई झुककर नारियल उठाने ही वाले थे...

    नाववाले ने कहा, “नीचे रख दो। मेरे साथ कोई सौदा-वौदा नहीं चलेगा।”

    थोड़ी देर बाद उसने भीखूभाई की ओर ध्यान से देखा और ज़रा ठंडे दिमाग़ से बोला, “सस्ते में चाहिए? नारियल के बग़ीचे में चले जाओ। वहाँ ढेर सारे मिल जाएँगे, मनपसंद दाम में।”

    भीखूभाई ने फिर अपने आप को समझाया, “इतनी दूर आया हूँ। अब बग़ीचे तक जाने में हर्ज़ ही क्या है?” सच बात तो यह थी कि वे काफ़ी थक चुके थे। मगर पच्चीस पैसे बचाने के ख़्याल से ही उनमें फुर्ती गई।

    भीखूभाई ने सोचा, “दोगुना ज़्यादा चलना पड़ेगा, पर चार आने बच भी तो जाएँगे और फिर, कोई भी चीज़ मुफ़्त में कहाँ मिलती है?”

    भीखूभाई नारियल के बग़ीचे में पहुँच गए। वहाँ के माली को देखकर उससे पूछा, “यह नारियल कितने में बेचोगे?”

    माली ने जवाब दिया, “जो पसंद आए ले जाओ, काका, बस, पच्चीस पैसे का एक। देखो, कितने बड़े-बड़े हैं!”

    “हे भगवान! पच्चीस पैसे! पूरा रास्ता पैदल आने के बाद भी! जूते घिस गए, पैर थक गए और अब पैसे भी देने पड़ेंगे? मेरी बात मानो, एक नारियल मुफ़्त में ही दे दो, हाँ। देखो, मैं कितना थक गया हूँ!”

    भीखूभाई की बात सुनकर माली ने कहा, “अरे, काका। मुफ़्त में चाहिए! न? यह रहा पेड़ और वह रहा नारियल। पेड़ पर चढ़ जाओ और जितने चाहो तोड़ लो। वहाँ नारियल की कोई कमी नहीं है। पैसे तो मेरी मेहनत के हैं।”

    “सच? जितना चाहूँ ले लूँ?” भीखूभाई तो ख़ुशी से फूले समाए। “मेरा यहाँ तक आना बेकार नहीं गया!”

    उन्होंने जल्दी-जल्दी पेड़ पर चढ़ना शुरू कर दिया। पेड़ पर चढ़ते-चढ़ते भीखूभाई ने सोचा “बहुत अच्छे! मेरी तो क़िस्मत खुल गई। जितने नारियल चाहे तोड़ लूँ और पैसे भी दूँ। क्या बात है!”

    भीखूभाई ऊपर पहुँच गए। फिर वे टहनी और तने के बीच आराम से बैठ गए और दोनों हाथों को आगे बढ़ाने लगे सबसे बड़े नारियल को तोड़ने के लिए। ज़्ज़्ज़्क! पैर फिसल गए। भीखूभाई ने एकदम से नारियल को पकड़ लिया। उनके दोनों पैर हवा में झूलते रह गए।

    “ओ माँ! अब मैं क्या करूँ?”

    भीखूभाई चिल्लाने लगे, “अरे भाई! मदद करो!” उन्होंने नीचे खड़े माली से विनती की।

    माली ने कहा, “वो मेरा काम नहीं, काका, मैंने सिर्फ़ नारियल लेने की बात की थी। बाक़ी सब तुम्हारे और तुम्हारे नारियल के बीच का मामला है। पैसे नहीं, ख़रीदना नहीं, बेचना नहीं, और मदद नहीं। सब कुछ मुफ़्त।” तभी ऊँट पर सवार एक आदमी वहाँ से गुज़रा।

    “अरे ओ!” भीखूभाई ज़ोर-ज़ोर से बुलाने लगे, “ओ ऊँटवाले! मेरे पैर वापस पेड़ पर टिका दो न! बड़ी मेहरबानी होगी।”

    ऊँटवाले ने सोचा, “चलो, मदद कर देता हूँ। मेरा क्या जाता है।”

    ऊँट की पीठ पर खड़े होकर उसने भीखूभाई के पैरों को पकड़ लिया। ठीक उसी समय ऊँट को हरे-हरे पत्ते नज़र आए। पत्ते खाने के लालच में ऊँट ने गर्दन झुकाई और अपनी जगह से हट गया।

    बस, वह आदमी ऊँट की पीठ से फिसल गया! अपनी जान बचाने के लिए उसने भीखूभाई के पैरों को कसकर पकड़ लिया। अब दोनों क्या करते? इतने में एक घुड़सवार आया।

    “अरे, सांभ्लो छो!” पेड़ से लटके दोनों पुकारने लगे। “सुनो भाई, कोई बचाओ! बचाओ! घुड़सवार को देखकर भीखूभाई ने दुहाई दी, “ओ मेरे भाई, मुझे पेड़ पर वापस पहुँचा दो।”

    “हम्म्म। एक मिनट भी नहीं लगेगा। मैं घोड़े की पीठ पर चढ़कर इनकी मदद कर देता हूँ” यह सोचकर घुड़सवार घोड़े पर उठ खड़ा हुआ।

    लेकिन कौन कहता है कि घोड़ा ऊँट से बेहतर है? हरी-हरी घास दिखाई देने पर तो दोनों एक जैसे ही हैं। घास के चक्कर में घोड़ा ज़रा आगे बढ़ा और छोड़ चला अपने मालिक को ऊँटवाले के पैरों से लटकते हुए।

    एक, दो और अब तीनों के तीनों-झूलते रहे नारियल के पेड़ से।

    “काका! काका! कसके पकड़े रहना, हाँ”, घुड़सवार ने पसीना-पसीना होते हुए कहा, “जब तक कोई बचाने वाला आए, कहीं छोड़ देना। मैं आपको सौ रुपए दूँगा।”

    “काका! काका!” अब ऊँटवाले की बारी थी। “मैं आपको दो सौ रुपए दूँगा, लेकिन नारियल को छोड़ना नहीं।”

    “सौ और दो सौ! बाप रे बाप, तीन सौ रुपए!” भीखूभाई का सिर चकरा गया। “इतना! इतना सारा पैसा!” ख़ुशी से उन्होंने अपनी दोनों बाहों को फैलाया... और नारियल गया हाथ से छूट।

    धड़ाम से तीनों ज़मीन पर गिरे घुड़सवार, ऊँटवाला और भीखूभाई। भीखूभाई अपने आप को सँभाल ही रहे थे कि एक बहुत बड़ा नारियल उनके सिर पर फूटा।

    बिल्कुल मुफ़्त।

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    ममता पांडेया

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    स्रोत :
    • पुस्तक : रिमझिम (पृष्ठ 114)
    • रचनाकार : ममता पांडेया
    • प्रकाशन : एनसीईआरटी
    • संस्करण : 2022
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