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मित्रघात

mitrghat

बहुत समय पहले रंगराज नाम का एक श्रेष्ठी था। व्यापार जगत् में दूर-दूर तक उसकी ख्याति थी। दुर्भाग्यवश उसे राजयक्ष्मा हो गया और वैद्य ने उसे बताया कि वह अब अधिक दिन तक जीवित नहीं रह सकेगा। रंगराज का पुत्र चंद्रराज अभी आयु में छोटा था। रंगराज के विस्तृत व्यापार-व्यवसाय को सँभाल पाना उसके वश की बात नहीं थी। अत: जब रंगराज को इस बात का आभास हुआ कि उसका अंत समय निकट गया है तो उसने अपने एक अभिन्न मित्र चंगलरायडु को अपने पात बुलाया।

‘मित्र चंगलरायडु, मेरा अंत समय निकट गया है। मेरा पुत्र अभी अवयस्क है। अत: मैं ये एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ तुम्हें दे रहा हूँ। मेरा पुत्र चंद्रराज जब वयस्क हो जाए तो वह जितनी स्वर्ण मुद्राएँ माँगे तुम उसे दे देना।’ यह कहते हुए रंगराज ने एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ चंगलरायडु को दे दीं।

‘तुम मुझ पर विश्वास कर सकते हो। मैं तुम्हारा मित्र हूँ। मैं कभी मित्रघात नहीं करूँगा।’ चंगलरायडु ने कहा।

कुछ दिन बाद रंगराज का देहांत हो गया। चंगलरायडु की देख-रेख में चंद्रराज का लालन-पालन होने लगा। चंद्रराज जब वयस्क हुआ तो वह चंगलरायडु के पास अपने पिता द्वारा दी गई स्वर्णमुद्राएँ माँगने पहुँचा। चंगलरायडु ने उसे एक लाख स्वर्ण मुद्राओं में से मात्र एक हज़ार स्वर्ण मुद्राएँ दीं और शेष देने से मना कर दिया। चंगलरायडु के मन में लालच घर कर चुका था।

चंद्रराज ने सोचा था कि चंगलरायडु यदि बेइमानी भी करेगा फिर भी उसे पिता द्वारा दी गई स्वार्णमुद्राओं में से आधी तो दे ही देगा किंतु चंगलरायडु ने ऐसा नहीं किया। चंद्रराज ने कई बार उससे माँगा लेकिन चंगलरायडु ने स्पष्टतौर से मना कर दिया। अब चंद्रराज दुखी होकर मर्यादाराज नामक न्यायाधीश के पास पहुँचा। चंद्रराज ने चंगलरायडु की बेईमानी के बारे में मर्यादाराज को बताया।

‘तुम्हारे पास अपने पिता का लिखा कोई पत्र है जिससे यह सिद्ध हो सके कि तुम्हारे पिता ने चंगलरायडु को एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दी थीं।

‘नहीं, ऐसा कोई पत्र मेरे पास नहीं है। मेरे पिता को चंगलरायडु पर अगाध विश्वास था अत: किसी प्रकार की कोई लिखा-पढ़ी नहीं की गई।’ चंद्रराज ने बताया।

तब मर्यादाराज ने चंगलरायडु को बुलाया और उससे पूछा कि रंगराज ने उससे क्या कहा था?

‘चंद्रराज बड़ा भला व्यक्ति था और मुझ पर उसकी विशेष कृपा थी। वह मुझे अपना घनिष्ठ मित्र मानता था इसलिए उसने मुझसे यही कहा था कि तुम जितनी मुद्राएँ चाहो, उतनी मुद्राएँ मेरे पुत्र को दे देना।’ चंगलरायडु ने झूठ बोलते हुए कहा।

मर्यादाराज समझ गया कि चंगलरायडु झूठ बोल रहा है। भला कोई व्यक्ति ऐसा कैसे कह सकता है? तब मर्यादाराज ने चंगलरायडु को उसी के शब्दों के द्वारा सबक सिखाने का निर्णय लिया।

‘इसका अर्थ तो यह हुआ कि जितनी स्वर्णमुद्राएँ तुम अपने लिए चाहो उतनी ही स्वर्ण मुद्राएँ तुम्हें रंगराज के पुत्र को देनी होंगी। जितनी तुम चाहो अर्थात् जितनी अपने लिए चाहो। तुमने एक लाख स्वर्ण मुद्राओं में से एक हज़ार स्वर्णमुद्राएँ देकर स्वयं के लिए निन्यानवे हज़ार स्वर्णमुद्राएँ चाहीं अत: तुम्हें चंद्रराज को भी निन्यानवे हज़ार स्वर्णमुद्राएँ देनी होंगी। अन्यथा मित्रघात करने के आरोप में तुम्हें कठोर दंड दिया जाएगा।’ मर्यादाराज ने कहा।

चंगलरायडु समझ गया कि मर्यादाराज उसकी बेईमानी को ताड़ गया है अत: उसने शेष निन्यानवे हज़ार स्वर्ण मुद्राएँ चंद्रराज को दे दीं। चंद्रराज अपने पिता का धन पाकर व्यापार-व्यवसाय करने लगा जबकि चंगलरायडु लालच के कारण अपनी साख गँवा बैठा।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 226)
  • संपादक : शरद सिंह
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2009

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