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ललमुनिया की समझदारी

lalamuniya ki samajhdari

किसी गाँव में एक किसान रहता था। ललमुनिया नाम की उसकी एक बेटी थी, जो बहुत समझदार थी। बचपन में ही उसका विवाह हो गया था। जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखने के बाद तक भी उसका गवना नहीं हुआ था। इसलिए वह अपने माँ-बाप की खेती-किसानी में हाथ बंटाती थी। परिवार के लोग सुख से अपना जीवन-बसर कर रहे थे। हँसी-ख़ुशी से भरे परिवार में किसी तरह की कमी नहीं थी। सभी खेत-खलिहान के कामों में व्यस्त रहते थे।

एक दिन की बात है। ललमुनिया के बापू खेत में हल जोतकर दोपहरी के पहले ही घर गए। नहा-धोकर खाना खाने बैठ गए। उधर ललमुनिया की माँ जांता में गेहूँ पीस रही थी। जांता में गेहूँ पीसते समय ही ओकरा ललमुनिया के बापू से यानी अपने मरद से मजाक करने की सूझी और एक बुझौनियाँ बूझने को बोली—

सेह बइठल भार सबना के, कभी बोले बानी।

बुझौनियाँ बूझिहें सामी, तब पीहेंऽ तू पानी।

खाते समय पानी पीने की मनाही से वह औरत अपने मर्द की परेशानी समझकर थोड़ी घबराई पर उसे बुझौनियाँ का मर्म समझ में नहीं आया। किसान ने भी भोजन करते समय ही अपनी घरनी को बुझौनियाँ बूझने के लिए कहा,

घर-घर सबके पावल जा हे, रखल रहे भुँई सानी।

बुझौनियाँ बूझिहँऽ धानी, तब डलिहँऽ तू घानी॥

अब दोनों को अपना-अपना काम रोक देना पड़ा। किसान पानी नहीं पी रहा है और उसकी पत्नी जांता में घानी नहीं डाल रही है। ललमुनिया यह सब देख रही थी। दोनों को अपनी-अपनी जगह ठिठके देखकर उसे रहा नहीं गया और बोली—

बप्पो बइठल, मइयो बइठल, हम हूँ बइठब जानी।

जल्दी पीअ पानी बाबू, मइयो डाले घानी॥

अपनी बेटी की समझदारी भरे उत्तर से रुका हुआ काम शुरू हो गया। दोनों समझ गए कि बुझौनियाँ का अर्थ पीढ़ा है। कुछ दिन के बाद ललमुनिया का गवना हो गया। उसका पति उसे गवना कराकर साथ लिए जा रहा था। रास्ते में ललमुनिया को गेहूँ के खेत में पशु कंकाल नज़र आया। कंकाल की आँख के गड्ढे में एक चिरई ने अंडा दिया था जिससे दो नन्हे-नन्हे चिरईं फुदक रहे थे। यह सब देखकर ललमुनिया अपने पति से बुझौनियाँ बूझने के लिए बोली—

आँख में दू पाँख बियानी, जौ-गोहूम के नारी।

मरम बतयब सामी, तब चलबो ससुरारी॥

यह सुनकर उसका पति चलते-चलते रुक गया। दोनों पति-पत्नी आरी (मेड़) के किनारे खड़े हो गए। उसका पति भी चालाक था, पर वह अपनी पत्नी की बुझौनिये का मर्म बता सका। इसलिए उसने औरत के स्वभाव संबंधी बात को घुमा-फिरा कर कहा—

कच्चा में कचकच, डंभा में मीठा,

कउन अइसन फल है कि पकला में तीता।

चतुर ललमुनिया समझ गई कि उसका पति भी बहुत समझदार है। वह कंकाल की आँख में चिरईं का बच्चा देखकर मुस्कुराई और ओस पड़ी घास पर चलते-बुदबुदाते हुए आगे बढ़ती गई—

अस्सी कोस के पोखरा, चौरासी कोस के घाट।

पोखरा में बज्जर परो, कि चिरईं पिआसल जाए॥

और इस तरह दोनों पति-पत्नी हँसी-ख़ुशी घर पहुँच गए और हँसी-ख़ुशी रहने लगे।

स्रोत :
  • पुस्तक : बिहार की लोककथाएँ (पृष्ठ 1)
  • संपादक : रणविजय राव
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2019

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