बहुत समय पहले की बात है। एक गाँव में एक बाबाजी रहते थे। वह बहुत वृद्ध थे। किसी तरह से ज़िंदगी कट रही थी। एक दिन उन्होंने इनरा में पानी भरने के लिए लोटा-डोरी डाला तो लोटा इनरा में ही रह गया। उसमें पहले से ही एक बाघ, एक साँप और एक सोनार गिरे पड़े थे। बाबाजी को देखकर वे सब कहने लगे कि पहले मुझे निकालो, मुझे निकालो! बाबाजी सोच में पड़ गए। क्या करें, क्या न करें। यदि बाघ को पहले निकालते हैं तो वह खा ही जाएगा। साँप को निकालते हैं तो वह डँस लेगा। बचा सोनार, तो यदि इसे निकालते हैं तो पुण्य होगा क्योंकि यह मनुष्य है। अब सोनार को निकालें तो कइसे निकालें? बाघ उसे छोड़े ही न।
इसी उधेड़बुन में थे, तभी बाबाजी ने बाघ को पहले निकाल दिया। उसके बाद साँप को निकाल दिया, फिर सोनार को निकाला और सबसे अंत में अपना लोटा निकाला। बाघ तो बाबाजी के गोड़ पर गिर गया और कहने लगा अब आप ही हमारे गुरु हैं। इसी तरह से साँप और सोनार ने भी बाबाजी के गोड़ पर गिरकर हाथ जोड़कर विनती की कि अब आप ही हमारे गुरु हैं। इसके बाद सभी अपने-अपने रास्ते चल दिए।
कुछ दिन बाद बाबाजी के मन में विचार आया कि क्यों न सबके यहाँ जाते हैं और उनकी परीक्षा लेते हैं। सही में वे मुझे गुरु मानते हैं या उनकी जान बचाने के कारण तत्काल भावविभोर होकर उन्होंने मुझे अपना गुरु मान लिया था। यही सोचकर वह घर से निकल गए। सबसे पहले बाघ के यहाँ चले। जंगल में जब वे पहुँचे, बहुत बाघ मिले। सारे उन्हें खाने के लिए लपके। बाबाजी ने कहा, “बड़ा बाघ मेरा चेला है। उसी के पास जा रहा हूँ।” यह सुनते ही सब बाघ पीछे हट गए और उन्हें बड़ा बाघ के यहाँ पहुँचा दिया। बाबाजी तीन-चार दिन वहाँ रुके और एक सुबह बोले, “चेला अब मैं अपने घर चलूँगा।” दक्षिणा में बाघ चेले ने उन्हें बहुत सारा सोना-चाँदी दिया। बाबाजी वहाँ से चल दिए।
रास्ते में चलते-चलते बाबाजी के दिमाग़ में आया कि क्यों नहीं साँप चेला से भी मिल लें। जब इधर आए ही हैं तो मिलने में क्या दिक़्क़त है। वे साँप चेला के यहाँ चल दिए। जब उसके निवास के नज़दीक पहुँच रहे थे तब उन्हें साँप का झुंड मिला। संभल-संभल कर आगे बढ़ रहे थे कि चेले से भेंट हो गई। साँप ने अपने गुरु के पाँव छुए और अपने घर ले गया। वहाँ भी तीन-चार दिन रुके। बड़ी आव-भगत की उनकी साँप ने। बाबाजी ने कहा, “साँप चेला अब मैं अपने घर चलता हूँ।”
यह सुन साँप एक मुनरिका लाया और उन्हें देते हुए कहा, “मुझ ग़रीब से यह छोटी-सी भेंट स्वीकार करें।” साँप ने बताया कि इस मुनरिका में यह गुण है कि जब आप पर आफ़त आए तो आग के धाह दिखाकर बोलिएगा, “हे मुनरिका! हमरा पर सहाय होव।” बाबाजी ने उसे सहर्ष ग्रहण किया और चेले को आशीर्वाद देकर वहाँ से निकल गए।
रास्ते में चलते-चलते उनके मन में विचार आया कि अपने दो चेलों के यहाँ तो हो आए, अब तीसरा चेला बचा सोनार। क्यों नहीं उसके यहाँ भी हो आएँ। देखते हैं हमारा यह तीसरा चेला कैसी आव-भगत करता है। यही सोचते-विचारते बाबाजी सोनार के यहाँ चल दिए। चलते-चलते सोनार के दरवाजे पर पहुँच गए। आवाज़ लगाए कि कोई है घर में.... ? ....अंदर से आवाज़ आई कि कौन टर्टरा रहे हैं, अभी आते हैं। इसी बीच बाबाजी को दिशा-मैदान जाना पड़ गया। उन्होंने आवाज़ लगाई, “मोटरी यहीं पर रखा है, मैं ज़रा दिशा-मैदान से आता हूँ।” बाबाजी अपनी मोटरी रखकर चले गए। इसी बीच सोनार मोटरी खोलकर देखने लगा। उसी दिन राजा के घर चोरी हुई थी। मोटरी में भी वही वही सामान मिला जो-जो राजा के यहाँ से ग़ायब किया था चोरों ने। उसने तुरंत मोटरी वैसे ही बाँध दी। सोनार झट से राजा के पास चला गया मोटरी लेकर। बाबाजी को राजा ने अपने दरबार में बुलाया और पूछा, “यह सब आप कहाँ से लाए हो?” बाबाजी ने सारा हाल सुना दिया सच-सच।
राजा ने बाबाजी को ज़बरदस्त डाँट लगाई और आदेश दिया, “इस बूढ़े को यहाँ से ले जाओ और इसे काल-कोठरी में बंद कर दो। कुछ ही दिन में इसे फाँसी पर चढ़ा दिया जाएगा।” कुछ दिन बाद बाबाजी को फाँसी देने का हुक्म हुआ। फाँसी देने वाले फँसियारा को उन्होंने कहा कि मुझे थोड़ा समय दो। आख़िर तुम तो मेरी जान लोगे ही। फिर तो मुझे मरना ही है। इसी बीच फँसियारा ने चिलम सुलगाया गाँजा पीने के लिए। बाबाजी ने बोला, “ज़रा मुझे भी एक दम लगाने के लिए दो।”
जैसे ही बाबा के हाथ में उसने चिलम पकड़ाया, साँप द्वारा दी मुनरिका को आग का धाह दिखाया और बोला, “हे सत् मुनरिका! हमरा पर सहाय होव।” यह सुनते ही साँप हनहनाता पहुँच गया। बाबाजी ने उसे सारा हाल कह सुनाया। साँप बोला, “राजा के इकलौते बेटे को मैं जाकर डँस लेता हूँ और आप बताना कि मैं झाड़-फूँक जानता हूँ। आप जाकर उसे मरने से बचा लेना।”
साँप ने ऐसा ही किया। जाकर राजा के इकलौते बेटे को डँस लिया। राजा का बेटा मर गया। यह ख़बर राज्य में चारों ओर आग की तरह फैल गई। बाबाजी ने काल-कोठरी के दरबान से कहा कि मैं साँप काटने का इलाज जानता हूँ, मैं राजा के बेटे को ज़िंदा कर दूँगा। दरबान ने इस ख़बर को राजा तक पहुँचा दिया। राजा तो बेचैन था। ख़बर सुनते ही बाबाजी को दरबार में बुलाया। वहाँ पहुँचकर बाबा ने बताया, “मैं इलाज कर दूँगा। इसके लिए जल्दी से एक मन लावा और दूध का इंतज़ाम किया जाए। राजा के आदेश देते ही सारी व्यवस्था तुरत-फुरत हो गई। बाबाजी ने दूध-लावा मिलाकर वहाँ रख दिया जहाँ राजा का बेटा मृतप्राय पड़ा था और दरवाज़ा बंद कर दिया। बाबाजी बाहर ही बैठकर झूठ-मूठ का मंत्र जाप का दिखावा करने लगे। उधर साँप बरेड़ी में जो धरन के साथ छुपा था, वहाँ से उतरकर दूध-लावा पी गया और राजा के बेटे के शरीर से जहर तीर लिया। ज़हर तीरते ही राजा का बेटा ज़िंदा हो गया। साँप जल्दी से जंगल की ओर भाग गया। पूरे राज्य में ख़बर फैल गई कि बाबाजी ने राजा के इकलौते बेटे को ज़िंदा कर दिया। राजा ने ख़ुश होकर उसका सारा सामान वापस कर दिया और इसके अलावा भी बहुत सारी धन-दौलत देकर विदा किया। बाबाजी ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर चले गए। इसलिए कहा जाता है कि भलाई का और उपकार का फल मीठा होता है।
- पुस्तक : बिहार की लोककथाएँ (पृष्ठ 55)
- संपादक : रणविजय राव
- प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
- संस्करण : 2019
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