लालची कौआ
एक गाँव में एक बूढ़ा रहता था। उसके बाल-बच्चे नहीं थे। एक दिन बूढ़े ने सोचा कि उम्र के बाकी दिन भगवान के ध्यान में बिता दिए जाएँ। यह सोचकर वह उसी दिन घर से निकल पड़ा।
मौसम था गर्मी का। तपती धूप! सनन-सनन् करती लू चल रही थी। पेड़ पौधे मुरझा रहे थे, किंतु बूढ़े को कोई चिन्ता नहीं थी। तूंबे में पानी भर लिया और निकल पड़ा।
अभी वह थोड़ी ही दूर चला था कि रास्ते में उसे एक तालाब दिखा लेकिन पानी की उसमें बूंद भी नहीं थी,पूरी तरह सूखा हुआ था। वहीं पास में था एक केकड़ा गर्मी से परेशान बेहाल!
बूढ़े को देखकर बोला,क्यों ताऊजी, आग-सी तेज़ धूप में कहाँ जा रहे हैं आप?
आवाज़ सुन बूढ़ा इधर-उधर ताकने लगा। वहाँ कोई भी नहीं था। गर्मी से बदहाल केकड़ा रेंगता हुआ बूढ़े के पाँवों के पास आ गया था। फिर चिल्ला कर बोला,मैं यहाँ हूँ, ताऊजी.... आपके पाँवों के पास।
बूढ़े ने देखा, फिर केकड़े को बताया कि वह भगवान में अपना मन रमाने के लिए घर से कहीं दूर जा रहा है।
केकड़े ने कहा,ताऊजी,ताऊजी! मुझे भी अपने साथ ले चलिए। यहाँ मैं गर्मी से मरा जा रहा हूँ। आपके साथ रह कर भगवान का नाम-जाप करते हुए मर भी जाऊँगा तो कोई दुख नहीं होगा।
बूढ़े का हृदय पसीज गया। उसने उसे उठा कर अपने तूँबे में डाल लिया। लेकिन फिर बोला, क्यों भाई केकड़े! यदि तुम्हें मैं किसी भरे हुए तालाब में छोड़ दूँ तो कैसा रहे? अपने साथ रखकर तो मैं मुसीबत में पड़ जाऊँगा, न।
केकड़ा बोला,नहीं ताऊजी। मुझे जीने की इतनी लालसा नहीं है। मैं तो आपके साथ राम-नाम का जाप करना चाहता हूँ। मुझे साथ रखने से आप किसी मुसीबत में नहीं पड़ेंगे। उल्टे मैं आपके किसी न किसी काम ज़रूर आऊँगा।”
बूढ़े ने उसकी बात मान ली। वह चल पड़ा। तूंबे के भीतर जाते ही केकड़े की जान में जान आई। तूंबे में पानी भरा था। वह ख़ुश होकर नाचने-फुदकने लगा।
चलते-चलते बूढ़ा बहुत थक गया था। वह थोड़ा आराम करना चाहता था। लेकिन पास में एक भी पेड़ नहीं था। वह थोड़ी दूर और चला फिर एक पीपल की छाँव देख कर वहाँ रुक गया। अपनी पोटली खोली। उसमें से एक अंग वस्त्र निकाला और पेड़ के नीचे बिछा कर लेट गया। तूंबा सिरहाने रखा था,थकान तो थी ही,लेटते ही गहरी नींद ने उसे आ घेरा।
उसी पेड़ के नीचे एक बमीठा था। बमीठे में रहता था एक काला ज़हरीला नाग। पेड़ के ऊपर कौए का घोंसला भी था। उसमें रहता था एक कौआ। नाग और कौए की दोस्ती थी। सोते बूढ़े को देखकर कौए के मुँह में पानी भर आया उसने नाग से कहा,नाग भाई! तुम इसे इस लो तो! यह मर गया तो मेरे महीने भर के भोजन का बढ़िया इंतज़ाम घर बैठे हो जाएगा।
नाग को कौए की बात माननी पड़ी। दोस्ती जो थी दोनों में! तूंबे के भीतर बैठा केकड़ा सब-कुछ सुन रहा था।
इतने में ही नाग ने बमीठे से निकल कर बूढ़े को डस लिया। डसने पर बूढ़ा मर गया। अब कौआ पेड़ पर से उतर कर बूढ़े की लाश के पास पहुँचा उसने सोचा,'सिर की ओर से खाना शुरु किया जाए'। ऐसा विचार कर जैसे ही वह सिर पर बैठा,केकड़े ने तूंबे से निकल कर उसकी गरदन दबोच ली। कौआ रिरियाने लगा।
केकड़ा बोला,अपनी ख़ैर चाहता है तो नाग से कह कर बूढ़े को ज़िंदा करवा।
कौए की जान सांसत में थी! क्या करे क्या न करे! आख़िर में अपनी जान छुड़ाने के लिए उसने नाग से कहा कि वह बूढ़े के शरीर से जहर खींच कर उसे ज़िंदा कर दे। नाग ने अपने मित्र की जान बचाने के लिए वैसा ही किया। बूढ़े के शरीर में जान आई। वह 'हे राम!' कहता उठ बैठा। सामने देखा तो भयानक काला नाग! दूसरी ओर केकड़े ने कौए की गरदन दबोच रखी थी।
बूढ़ा सारा माज़रा समझ गया। उसने केकड़े का आभार माना। फिर दोनों अपने रास्ते चल पड़े।
- पुस्तक : बस्तर की लोक कथाएँ (पृष्ठ 93)
- संपादक : लाला जगदलपुरी, हरिहर वैष्णव
- प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
- संस्करण : 2013
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