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गोनू झा के गुण

gonu jha ke gun

गोनू झा मिथिला क्षेत्र के एक अत्यंत लोकप्रिय व्यक्तित्व हैं। वह अपनी चतुराई भरे गुणों के लिए जाने जाते हैं। उनके इस चतुराई भरे गुणों से उनका एक मित्र बहुत प्रभावित था। वह गोनू झा का परम मित्र था। वह चाहता था कि गोनू भी उसे अपने गुण सिखाए क्योंकि वह उसकी ख्याति सुन-सुनकर दंग रह गया था। वह ऐसे गुण सीखने के लिए लालायित था।

एक दिन हाट-बाज़ार में उसकी मुलाक़ात अपने परम मित्र गोनू झा से हो गई। उसने कहा, “मित्र! मुझे हर कोई मूर्ख बना देता है। मुझे भी ऐसे गुण सिखा दो ताकि कोई मुझको ठग सके।”

मित्र की यह बात सुनकर गोनू झा बिना मुस्कुराए रह सके और बोले, “मित्र! ऐसा गुण सीखकर तुम क्या करोगे। यह कोई अच्छा गुण तो है नहीं।”

फिर भी मित्र नहीं माना। जब भी गोनू झा से मुलाक़ात होती, गुण सिखाने का आग्रह कर देता था।

एक दिन मित्र जब गुण सीखने का आग्रह कर रहा था तब गोनू झा ने उससे कहा, “मित्र! यह गुण जो तुम सीखना चाहते हो, इसी गुण के कारण मित्र मेरे शत्रु बन जाते हैं और शत्रु मित्र बन जाते हैं। मैं अवश्य मूर्खों को विद्वान, विद्वानों को मूर्ख, सज्जनों को दुर्जन और दुर्जनों को सज्जन, बेईमानों को ईमानदार और ईमानदारों को बेईमान साबित कर देता हूँ। इसलिए तुम मुझसे कुछ नहीं सीखो, वही अच्छा।”

उस मित्र ने समझाने के बावजूद गोनू झा की बात नहीं मानी और गुण सिखाने का बार-बार आग्रह करता रहा।

बात आई गई हो गई। कुछ दिन के बाद गोनू झा को अपने उसी मित्र के पास जाना हुआ। उन्होंने अपने मित्र से आग्रह किया कि इस टोले में कुछ कुम्हार रहते हैं। उनसे मुझे मिट्टी के एक हज़ार सिक्के बनवाने हैं। यदि तुम इस काम में मेरी मदद करो तो बड़ी कृपा होगी।

गोनू झा के मित्र ने यह नहीं पूछा कि मिट्टी के इन सिक्कों का क्या करोगे और बिना कोई और सवाल किए उस मित्र ने गोनू झा की बात मान ली।

इसके बाद गोनू झा ने कहा, “मित्र! कम-से-कम पाँच सौ सिक्के तो मुझे तीन-चार दिन बाद ही चाहिए, शेष सिक्के बाद में भी पहुँचा दोगे तो चलेगा।”

तीन दिन बाद ही उस मित्र ने पाँच सौ सिक्के लेकर गोनू झा के घर पहुँचाने की बात की। गोनू झा ने बोला, “मित्र! जब सिक्का दोगे तो उन्हें लाल रंग की बगुली में भर कर देना।”

दूसरे दिन मित्र लाल रंग की एक बगुली में मिट्टी के पाँच सौ सिक्के गोनू झा को दे आया। गोनू झा ने अपने मित्र से मिट्टी के सिक्के लेते हुए कहा कि शेष पाँच सौ सिक्के यदि इसी महीने दे दोगे तो ठीक रहेगा।

एक महीने बाद दोनों मित्रों की मुलाक़ात गाँव के हाट में हो गई। वहाँ गोनू झा ने गाँव के लोगों के बीच में ही कहा, “मित्र! बाक़ी के पाँच सौ सिक्के तुमने अभी तक दिए नहीं। कब तक लाओगे सो बता देना।”

मित्र ने कहा, “भाई पाँच सौ सिक्के तो मैंने पहुँचा ही दिए हैं, उसी से काम चलाओ। जैसे बाक़ी के पाँच सौ सिक्के बन जाते हैं, उन्हें भी पहुँचा दूँगा।”

इस तरह से हाट-बाजार अथवा आते-जाते रास्ते में जब भी मुलाक़ात होती, गोनू झा उससे सिक्कों का तगादा करना भूलते थे और मित्र उनके इस आग्रह को टालता जाता था।

देखते-ही-देखते पूरे गाँव में यह बात फैल गई कि गोनू झा के मित्र ने उनके पाँच सौ सिक्के रख लिए हैं और अभी तक नहीं दिए हैं। गोनू झा ने गाँव के लोगों को बताना शुरू कर दिया कि मैंने अपने मित्र को पाँच सौ सिक्के दिए थे जिसे उसने अभी तक वापस नहीं किए हैं।

बात यहाँ तक बढ़ गई कि इस बात का फ़ैसला करने के लिए पंचायत बुलानी पड़ी। गोनू झा और उनका मित्र—दोनों उपस्थित हुए। गोनू झा ने उपस्थित पंचों से कहा, “आप सभी पंच परमेश्वर लोगों से मेरा कहना है कि मेरे मित्र ने पाँच माह पूर्व मुझसे 1000 सिक्के उधार लिए थे जिसमें से पाँच सौ सिक्के तो उसने तुरंत वापस कर दिए थे। शेष पाँच सौ सिक्के एक माह बाद वापस करने के लिए कहा था। उसके भी अब चार माह बीत गए हैं। आप सबसे निवेदन है कि इस बात का न्याय करें।”

गोनू झा का आरोपित मित्र यह सब सुनकर दंग रह गया। उसने कहा, “मित्र! इसके लिए पंचायत बुलाने की क्या ज़रूरत थी? आप क्या बोल रहे हैं, उसे मैं कुछ नहीं समझ पा रहा हूँ।”

गोनू झा ने कहा, “मित्र! मैं तगादा करते-करते थक चुका हूँ। जब कोई दूसरा उपाय नहीं बचा तब पंच लोगों को बुलाना पड़ा। अब पंच लोग ही फ़ैसला करेंगे।

यहाँ उपस्थित अधिकांश लोगों को पता है कि मैं जब भी तुमसे मिला, मैं तगादा करना नहीं भूला। पर तुमने हमेशा टालने की कोशिश की।”

सभी पंचों ने गोनू झा की बात का अनुमोदन किया।

इस पर गोनू झा के मित्र ने उनको ठग और बेईमान बताया और कहा, “हे मित्र! ज़रा ईमानदारी से बताओ कि मैंने कब तुमसे एक हज़ार सिक्के लिए थे और कब लौटाए थे?

गोनू झा ने छूटते ही वह बगुली निकालकर दिखाया जिसमें मित्र ने उनको मिट्टी के पाँच सौ सिक्के दिए थे। उन्होंने पंचों को दिखाते हुए कहा कि आप सब इससे पूछिए कि क्या यह वही बगुली नहीं है जो इसने मुझे दी थी? यह किसकी बगुली है?

इस पर मित्र ने कहा, “बगुली तो मेरी ही है। मैंने इसी बगुली में गोनू झा को मिट्टी के पाँच सौ सिक्के दिए थे और मिट्टी के पाँच सौ सिक्के बाद में देने का वादा किया था।

गोनू झा ने पंचों की तरफ देखकर खीझते हुए कहा कि माननीय पंचों, मैं भी पागल हो गया था कि धिया-पुता की तरह मिट्टी के सिक्कों का खेल खेल रहा था।

अंत में सभी पंचों ने कहा, “गोनू झा ठीक ही कह रहे हैं। ये मिट्टी के सिक्के लेकर क्या करेंगे! इनके मित्र ने इनसे अवश्य एक हज़ार सिक्के लिए होंगे, जिसमें से पाँच सौ तो तुरंत वापस कर दिए परंतु बाक़ी बचे पाँच सौ सिक्के भी तुरंत वापस करे अन्यथा सूद सहित वापस करना पड़ेगा।”

गोनू झा का मित्र माथा पकड़कर ज़मीन पर बैठ गया। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। बदनामी और बेइज़्ज़ती तो हुई ही पाँच सौ सिक्के भी वापस करने पड़े।

उस दिन के बाद से वह मित्र गोनू झा को धूर्त-कपटी समझकर उनसे अलग-थलग रहने लगा। कभी गोनू झा यदि हाट-बाज़ार में टकरा भी जाते थे तो वह मुँह फेर लेता था। किसी से बातचीत में यदि गोनू झा की चर्चा होती तो वह छूटते ही उन्हें लुच्चा-लफंगा, बेईमान आदि शब्दों से संबोधन कर विभूषित करता था।

कुछ दिन तक तो इसी तरह से चलता रहा। एक दिन गोनू झा के उस मित्र के दालान पर गाँव के मानिंदे लोग जुटने लगे। धीरे-धीरे जिन पंचों ने फ़ैसला दिया था, वे भी बारी-बारी से आने लगे। यह सब देख वह मित्र घबराकर दालान से दूर चला गया और देखने लगा।

तभी गोनू झा ने अपने मित्र को कसकर पकड़ लिया और कहा, “मित्र! कहाँ जा रहे हो? पंचायत के लिए लोग तुम्हारे दरवाज़े पर इकट्ठा हुए हैं और तुम दूर भाग रहे हो। मुझे बार-बार अपना गुण सिखाने की बात करते थे और जब गुण सीखने की बारी आई तो मुझे दुश्मन समझने लगे।”

मित्र गोनू झा के पंजों की पकड़ से अपने आपको छुड़ाने की कोशिश कर रहा था। इसी बीच गोनू झा ने सभी पंचों से कहा, “वास्तव में यह मेरा मित्र है। ये मेरा गुण सीखना चाहता था। मैंने इसको मिट्टी के एक हज़ार सिक्के बनवाने के लिए कहा था। पाँच सौ सिक्के तो यह बगुली में भरकर ले आया और पाँच सौ बाक़ी रह गए थे। इसलिए मैं बार-बार तगादा करता रहा। परिणाम आप सबके सामने है। मिट्टी के पाँच सौ सिक्कों के बदले इसे पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएँ देनी पड़ी।”

इतना कहकर गोनू झा ने अपने मित्र के हाथ में बगुली में भरकर पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएँ पकड़ा दी और कहा, “कहो मित्र! तुमने अब भी मेरा गुण सीखा कि नहीं?”

मित्र मुस्कुराते हुए गोनू झा से लिपट गया और कहा, “तुम्हारा गुण सीख लिया, मित्र, सीख लिया।”

स्रोत :
  • पुस्तक : बिहार की लोककथाएँ (पृष्ठ 123)
  • संपादक : रणविजय राव
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2019

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