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विश्वविद्यालय के प्रेत

सन् सत्रह के जुलाई महीने की चौथी तारीख़ थी। मैं अच्छे बच्चे की तरह बारहवीं के आगे की पढ़ाई करने के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में दाख़िला लेने के लिए बनारस जा पहुँचा था। कॉलेजों की, यूनिवर्सिटियों की माया बड़ी व्यापक होती है। कबीरदास कह गए, 'कबीरा माया डाकिनी, सब काहु को खाये'। सो प्रथम वर्ष से ही मैं इस मायावी जीवन में लोगों को डूबते, तैरते, उतराते और कुछ को पार लगते देखता रहा।

समय बीता। स्नातक की उपाधि मिल गई। स्नाकोत्तर भी हो गया। उसे भी गए अब साल बीते। इन बीते दिनों में मैंने जाना कि किसी संस्था का अंग होते हुए उसे देखने की और फिर उससे हटकर, बाहर निकलकर, अलग होकर देखने की दृष्टि भिन्न-भिन्न होती है। जुड़े रहते हुए आपके भीतर एक मोह होता है। एक दंभ भी कदाचित। बाहर निकलकर आप इससे मुक्त हो जाते हैं। कम-से-कम प्रयास अवश्य करते हैं और ऐसा न कर पाना भी एक दुर्भाग्य-सा प्रतीत होता है।

स्नातक, परास्नातक और उसके बाद के समय में विद्यार्थियों के गुटों के गुटों को आते और जाते देखते हुए, मैंने पुरातन छात्रों, एल्युमिनाई स्टूडेंट्स, पर ग़ौर किया। मैंने पाया कि पुरातन छात्र तीन तरह के होते हैं :

पहली श्रेणी में ऐसे छात्र आते हैं—जो अपने समय में विश्वविद्यालय में आए, शिक्षा-दीक्षा अर्जित किए, ज्ञान बँटोरा, अनुभव जुटाए और समय रहते निकल लिए। जीवन में अपना ध्येय सुनिश्चित किया, परिश्रम किया और उसे पा लिया। अब वो जीवन में आगे बढ़ गए हैं। जब ऐसे छात्र विश्वविद्यालय प्रांगण में दिखते हैं, तो प्रायः अपने बिताए समय की सुखद स्मृति को भोगते पाए जाते हैं। जब ऐसे पुरातन छात्रों को कनिष्ठ छात्र देखते हैं तो उनके आस-पास ऐसे मंडराना शुरू कर देते हैं, जैसे परागकणों से प्रचुर पुष्प के चहुँओर कीट-पतंगे मंडराते पाए जाते हैं। ऐसे पुरातन छात्रों की ओर अभी विश्वविद्यालय में पढ़ रहे छात्र प्रायः ऐसी लालसा भरी दृष्टि से देखते हैं कि अभी भैया/दीदी कोई ब्रह्मवाक्य देंगे, कोई गुरुमंत्र उच्चारेंगे और बस फिर क्या? फिर तो लाइफ़ सेट है। और कुछ न हो तो छोला-समोसे की व्यवस्था तो हो ही जाती है और उसकी व्यवस्था करते हुए ऐसे पुरातन छात्र सुखद ही अनुभूत करते हैं। ऐसे पुरातन छात्र सम्मानित और प्रतिष्ठित होते हैं।

दूसरी श्रेणी में वे छात्र आते हैं—जो अपने समय में विश्वविद्यालय में आए, शिक्षा-दीक्षा अर्जित किए, ज्ञान बँटोरा, अनुभव जुटाए पर समय रहते निकले नहीं। वरन् उसी संस्था में रहते हुए आगे बढ़ गए। या कहें कि जीवन में भी आगे बढ़ गए। सरल शब्दों में कहें तो स्नातक के बाद परास्नातक और उसके बाद आगे की उपाधि के लिए बने रह गए। ऐसे छात्र अपने स्थान को लेकर सजग होते पाए जाते हैं। ये प्रायः ऐसे स्थानों पर चाय, नाश्ता या बैठकी करते नहीं मिलते, जहाँ स्नातक के तो क्या स्नाकोत्तर के भी छात्रों का जमघट मौजूद हो। कईयों को इसमें असहजता होती है। कईयों को स्वयं की मर्यादा में उल्लंघन का भय रहता है। कईयों को तो इसमें तौहीन भी होती है। ये अपने नए अड्डे ढूँढ़ निकाल लेते हैं। समय के साथ चरित्र में गंभीरता भी आ जाती है, तो स्नातक के विद्यार्थियों की गर्मजोशी या उत्साह के प्रति एक जुगुप्सा भी जैसे उत्पन्न होती है। ऐसे छात्र जिन्हें अब शोधार्थी कहा जाता है, भी कई बार कनिष्ठ छात्रों से घिर जाते हैं परंतु ये प्रायः कम होता है। जैसे भी हो इस श्रेणी के छात्र भी एक सीमा तक सम्मानित और प्रतिष्ठित होते हैं।

तीसरी श्रेणी सबसे महत्त्वपूर्ण श्रेणी है, इस पूरे चिंतन का मेरुदंड है। तीसरी श्रेणी में वो छात्र आते हैं—जो अपने समय में विश्वविद्यालय में आए, शिक्षा-दीक्षा अर्जित किए (?), ज्ञान भी बँटोरा, अनुभव भी जुटाए पर समय रहते निकले नहीं। वहीं चिपक गए। ऐसे सज्जन न ही उस संस्था से बाहर निकलकर कुछ और करने को मुखर ही हुए; न ही विश्वविद्यालय में ही रहकर उसका सकारात्मक अंग बन सके। न ये विश्वविद्यालय से मुक्त हुए; न ही विश्वविद्यालय इनसे मुक्त हो पाया। इन्होंने प्रायः प्रश्नवाचक चिह्नों की गुगली से बचने के लिए ऐसे पाठ्यक्रमों में दाख़िला ले लिया जिनसे न इन्हें सरोकार रहा न इनके भविष्य को। कोई भी ऐसा कोर्स जो आसानी से झेला जा सकता था। उसे इन्होंने ठीक वैसे ही धारण करना चुना जैसा पाकिस्तान की सेना की अफ़सरशाही अपनी गणवेश पर मेडल धारण करती है।

परंतु इस श्रेणी में भी कुछ विशुद्ध महानता वाले होते हैं, बिना मिलावट वाले। जो एक बार आए, एक उपाधि लिए, लिए तो लिए नहीं तो वो भी नहीं लिए। और वहीं चिपक कर रह गए। ये विश्वविद्यालय के प्रेत होते हैं। लोकगाथाएँ, दंतकथाएँ आदि कहती हैं कि पुराने पेड़ों में प्रेतों का वास होता है। किसी मनुष्य का जीवन असमय अवसान को पा गया, उसके मंतव्य पूरे हुए बिना ही उसके जीवन की कालनिशा आ गई। ऐसे में अपनी इच्छाओं के शूल को लिए हुए वो प्रेत बन जाता है। ऐसे प्रेत किसी पेड़ को पकड़ लेते हैं। उससे चिपक जाते हैं। न वो पेड़ से मुक्त हो पाते हैं। न पेड़ उनसे मुक्त हो पाता है। पेड़ पत्तियाँ, फूल, फल, छाल, लकड़ी, औषधि सब पैदा करता रहता है। ये सब पेड़ से दूर होकर पेड़ की सार्थकता को सिद्ध करते रहते हैं। अपनी स्वयं की सार्थकता को सिद्ध करते रहते हैं। पेड़ के सम्मान का निमित्त बनते हैं। परंतु प्रेत? प्रेत वहीं रहता है। वह कुछ करता भी है तो आते-जाते राहगीरों से बीड़ी माँगता है।

ऐसे प्रेतों में अदम्य अहंकार होता है कि वो इस पेड़ पर आए और यहीं के होकर रह गए। वो पेड़ के सच्चे साथी हैं। उसके अपने हैं। पेड़ उनका अपना है। उनकी बपौती है। फल, फूल, पत्ती या डाल जैसे नहीं, जो आए और चले गए। वो पेड़ पर रहने को रोमांटिसाइज करते हैं। ये बात उन्हें कभी समझ नहीं आती कि पेड़ इस बात से परेशान है। लोगों ने पेड़ को शापित कहना शुरू कर दिया है। लोगों ने पेड़ के निकट भरी दुपहर में और संध्याकाल के पश्चात जाना छोड़ दिया है। शीघ्र लोग उस पेड़ के उत्पाद खाना छोड़ देंगे। वो दिन दूर नहीं जब पेड़ को पूजा जाना भी छोड़ दिया जाएगा। परंतु प्रेतों को इस बात से निश्चिंतता रहती है। वो इस तत्थ को लेकर प्रसन्न रहते हैं कि उन्हें इस बात का ज्ञान है कि पेड़ के किस कोने में क्या चल रहा है?

ऐसे ही प्रेत रूपी पुरातन छात्र हर विश्वविद्यालय में पाए जाते हैं। विश्विद्यालय की आब-ओ-हवा के मुताबिक़ इनके लक्षण भिन्न-भिन्न हो सकते हैं परंतु अधिकांश लक्षण समान होते हैं। इतने समान कि हर विश्वविद्यालय के पुरातन प्रेत से मिलकर कुछ मिनटों की वार्तालाप में ही इस बात का सटीक अनुमान लगाया जा सकता है कि श्रीमान जी प्रेत हैं। किसी विश्वविद्यालय की अकादमिक गुणवत्ता उस विश्वविद्यालय में डोल रहे प्रेतों की संख्या के व्युत्क्रमानुपाती होती है, इन्वर्सली प्रोपोर्शनल—एकदम उलट।

प्रायः ऐसे प्रेत ऐसी जगहों पर ऐसे समय में पाए जाते हैं, जहाँ भीड़ होने की संभावना अधिक होती है। कुछ दमदार प्रेत भी होते हैं जो अपनी भीड़ स्वयं लेकर चलते हैं। ये कॉरिडॉर में, चाय की दुकान पर, संगोष्ठियों में, छात्रावासों के दरवाज़ों पर पाए जाते हैं। ऐसे में नए छात्रों को इन्हें टालना लगभग असंभव हो जाता है; जिससे इनका दैनिक ‘भैया प्रणाम!’ का कोटा पूरा हो पाता है। पर उसमें भी बड़ी विडंबना होती है। कई बार ‘भैया प्रणाम!’ के स्थान पर मिथ्याभास से कान में ‘भैया परिणाम?’ पड़ता है। और यदि प्रेतों के पास परिणाम होता तो प्रेत ही क्यों होते?

ऐसे प्रेतों के पास जो सबसे बड़ा गुण होता है, जिसका इन्हें बड़ा अभिमान होता है, वो होता है दख़लंदाज़ी का। इन्हें स्नातक प्रथम वर्ष के विद्यार्थी से लेकर वरिष्ठ प्राध्यापकों तक के निजी जीवन की अंदरूनी और ठोस जानकारी होती है। जिसे ये बड़े चाव के साथ चाय की चुस्कियाँ लेते, समोसे कुतरते हुए वर्णित करते हैं। उस समय इनकी दृष्टि इंद्र को, इनकी जिह्वा शारदा को, इनके चेहरे शेष को मात दे रहे होते हैं। इनके सूत्र गुप्तचर विभाग से अधिक शक्तिशाली होते हैं और इन्हें पूरे विश्वविद्यालय में चल रहे हर घटनाक्रम का इल्म होता है।

इन प्रेतों का एक और रूप होता है—नाग का। पर ये बिना मणि के नाग होते हैं। इनके पास संजोने के लिए कुछ नहीं है। न खोने के लिए। न ही दिखाने के लिए। इनका विष भी लगभग मर चुका है। केवल फुँकार बची है, जिसे ये जब-तब अवसर देखकर छोड़ते रहते हैं। इनके पास अगर कुछ होता है, तो वो होते हैं सँपोले। जो इनके लिए बड़े महत्त्वपूर्ण होते हैं। ये सँपोले ट्रेनिंग पीरियड में होते हैं। इन सँपोलों के होते हुए ही इन प्रेतों को अपने नाग होने का एहसास बना रहता है। ये सँपोले भी ऐसे नागों के आस-पास इसीलिए भटकते हैं कि सीख लें कि यदि जीवन में कभी मणि न बचे, या विषग्रंथियाँ शुष्क हो जाएँ तो निर्लज्जता के साथ फुँकार कैसे मारी जा सकती है? कई बार इन गुरु नाग और शिष्य सँपोलों के मध्य में वह दृश्य भी देखने को मिलता है, जो विषधरों के लिए अप्रत्याशित नहीं ही होता है। ये एक दूसरे को निगलने को आतुर हो उठते हैं।

बहरहाल, जो भी हो। प्रेतों को भी प्रणाम करना चाहिए। बस दूर से। प्रेतों के पेड़ों को भी दूर से प्रणाम कर के निकल लिया जाता है। श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी जी ने खलों की वंदना की है। सो उन प्रेतों को सादर प्रणाम है। वो ऐसे ही विश्वविद्यालय से चिपके रहें। आने वाली पीढ़ियों को मार्गदर्शन देते रहें। अपने चरित्र से प्रकट करते रहे हैं कि आदमी जब कॉलेज पढ़ने जाए तो कैसा न बने? 

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आशीष कुमार शर्मा को और पढ़िए : बारहमासी के फूल | ‘गुनाहों का देवता’ से ‘रेत की मछली’ तक | जीवन को धुआँ-धुआँ करतीं रील्स

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