कठफोड़वा
एक गाँव में एक बूढ़ा और बुढ़िया रहते थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। उनके पास बहुत खेती-बाड़ी थी किंतु वे खेती-बाड़ी का काम नहीं कर सकते थे। गाँव के मदद करने वाले कुछ लोग उनकी खेती अधिया पर जोत-बो देते थे। खेती का सारा काम करने के बाद धान भी उनके घर तक पहुँचा देते थे। बूढ़े-बुढ़िया को किसी तरह की चिंता करने की आवश्यकता नहीं थी किंतु बुढ़िया ऐसी थी कि कुछ किए बग़ैर उससे रहा ही नहीं जाता था। परले दर्ज़े की कंजूस भी थी वह। उसने 'कभी काम आयेंगे, बिक्री करने पर रुपए-पैसे मिलेंगे', सोच कर ढेर सारे मुर्ग़े-मुर्ग़ियाँ पाल रखी थी। कंजूस इतनी थी कि किसी और को खाने देना तो दूर अपने पति को भी मुर्ग़ों की छाया तक से दूर रखती थी। यहाँ तक की स्वयं भी कभी नहीं खाया।
बूढ़े को लालच होता। वह बुढ़िया से जब भी एकाध मुर्गा मार कर रांधने के लिए कहता, बुढ़िया उसे डाँट देती। बूढ़ा परेशान! सोचता,यह कभी कहीं जाती भी नहीं। कभी मायके चली जाए एकाध-दो दिनों के लिए तो मज़ा ही आ जाए। दो-चार मुर्ग़े हलाक कर दूँ। किंतु उसकी यह इच्छा भी पूरी नहीं होती दिख रही थी,सो उसने एक योजना बनाई। एक दिन वह लकड़ी लाने के बहाने जंगल गया। वहाँ उसने बहुत पहले एक वृक्ष देखा था,जिस में एक बड़ा-सा कोटर था। उसने उस कोटर में झाँक कर देखा तो उसकी बाँछें खिल गईं। वह कोटर के भीतर घुसा। उसे साफ़ किया और बाहर निकल कर लकड़ी का बोझा उठाए घर वापस हो गया।
बुढ़िया से कहा,सुनती हो! आज मैंने जंगल में एक पेड़ की कोटर में एक कठफोड़वा देखा। यदि उसे हम किसी तरह ले आते तो उसे बेच कर ढेर सारे रुपए कमाए जा सकते हैं।
बुढ़िया ने सुना तो बहुत प्रसन्न हो गई। बोली,तो नेक काम में देर क्यों भला? ले आओ न जाकर।
बूढ़ा बोला,अरे! ऐसे ही थोड़े चला आएगा भई? उससे मित्रता करनी पड़ेगी पहले। और मित्रता तब होगी जब उसे पतले (महीन) चावल का भात और मुर्ग़े का साग खिलाया जाएगा।
बुढ़िया की नज़रों में तो रुपयों से भरी थैली झूल रही थी। बोली,ओहो! इसमें कौन-सी बड़ी बात है? घर में इतने सारे तो मुर्ग़े हैं। मैं रांध देती हूँ। जाओ,जाकर उस बड़े वाले मुर्ग़े को मार कर ले आओ।
बूढ़ा बोला,अरे,रहने भी दो। इतनी जान खपा कर तुमने इन्हें पाला-पोसा है। एक कठफोड़वा के लिए क्यों इन्हें मारें?
बुढ़िया ने कहा,कोई बात नहीं। सब मुर्ग़े यदि ख़त्म भी हो जाएँ तो क्या? ढेर सारे रुपए तो मिलेंगे कठफोड़वा को बेचने पर।
सुन कर बूढ़ा मन-ही-मन प्रसन्न हुआ! ऊपर से यों दिखाता कि यह सब उसे बिल्कुल ही अच्छा नहीं लग रहा है,उठा और सबसे बड़े मुर्ग़े को मार डाला। बुढ़िया ने झटपट पकाया। तब बूढ़े ने कहा,चलो,मैं तुम्हें वह स्थान दिखला देता हूँ।
फिर दोनों जंगल गए। बूढ़े ने कुछ दूर से उस वृक्ष की ओर संकेत किया और कहा,देखो भई! तुम टोकरी में भात-साग लेकर आना और कोटर की तरफ़ पीठ करके कठफोड़वा को आवाज़ देना। वह स्वयं अपना भोजन निकाल लेगा। किंतु सावधान! उस ओर भूल कर भी नहीं देखना। यदि तुमने उधर देखा तो वह बिदक जाएगा और मित्रता खटाई में पड़ जाएगी।
बुढ़िया बोली,ठीक है। तुम जैसा कहते हो,मैं वैसा ही करूँगी।
फिर दोनों घर लौट आए। बुढ़िया ने झटपट टोकरी में खाना रखा और सिर पर धर कर चल पड़ी जंगल की ओर। उधर बूढ़ा दूसरे रास्ते से भागता हुआ उस वृक्ष तक पहुँचा और कोटर के भीतर घुस गया। बुढ़िया कोटर के पास पहुँची और उस ओर पीठ कर के खड़ी हो गई। उसने कठफोड़वा को आवाज़ दी। बूढ़े ने कोटर से बाहर निकल कर टोकरी से भोजन ले लिया और जल्दी-जल्दी खाने लगा। बुढ़िया वहाँ से चल पड़ी। बूढ़े ने जल्दी-जल्दी भोजन किया और फिर उसी दूसरे रास्ते से भागता-दौड़ता घर पहुँच गया। बुढ़िया आई तो बूढ़े ने पूछा,क्यों जी! दे आईं भोजन कठफोड़वा को?
बुढ़िया ने गर्व से कहा,हाँ,दे आई। बड़ा प्रसन्न हो रहा था कठफोड़वा।
बूढ़ा मन-ही-मन मुस्करा कर रह गया। इसी तरह कई दिन बीत गए। सारे मुर्ग़े-मुर्गियाँ ख़त्म। अंतिम मुर्ग़े के ख़त्म हो जाने पर बूढ़ा बोला,अरी भागवान! अब तो ले आ उस कठफोड़वा को। सारे मुर्ग़े ख़त्म हो गए। अब क्या खिलाओगी उसे?
बुढ़िया बोली,हाँ, अब तो लाना ही है। दोस्ती भी अच्छी हो गई है। यह कह कर बुढ़िया पहुँची जंगल और उस वृक्ष के कोटर के सामने खड़ी होकर पुकारने लगी। बहुत पुकारने पर भी जब कोई नहीं निकला तो वह कोटर के भीतर झाँकने लगी। देखा,वहाँ कोई भी नहीं है। वह सिर पर हाथ धर कर गश खा कर वहीं गिर पड़ी।
मेरी कहानी समाप्त हुई। इसीलिए अधिक कंजूसी करना भी ठीक नहीं होता।
- पुस्तक : बस्तर की लोक कथाएँ (पृष्ठ 89)
- संपादक : लाला जगदलपुरी, हरिहर वैष्णव
- प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
- संस्करण : 2013
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