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न्याय की बात

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राजा के घर की बात है। उसके गौशाले की छत पर एक लकड़ी के भीतर चिड़ियों का एक जोड़ा घोंसला बना कर रहता था। कुछ दिनों में चिड़ी ने अंडे दिए किंतु पता नहीं किस बात पर चिड़ी और चिड़ा में अनबन हो गई। चिड़ा घोंसला छोड़ कर कहीं चला गया। चिड़ी अंडे सेने लगी। समय पर अंडे फूटे, बच्चे निकले। चिड़ी उनका पालन-पोषण करने लगी। बच्चे बड़े होने लगे, पर निकले और वे उड़ने के लायक हो गए। तभी एक दिन अचानक चिड़ा वापस लौट आया। सब मिल-जुल कर सुख से रहने लगे। फिर किसी प्रसंग पर एक दिन चिड़े ने चिड़ी से कहा,सुनती हो! ये बच्चे तो मेरे हैं।

चिड़ी ने कहा,नहीं। बच्चे मेरे हैं।

चिड़े ने कहा,नहीं। मेरे हैं।

बस! इसी बात पर दोनों में तकरार हो गई। अंततः चिड़े ने कहा,यों झगड़ने से कोई लाभ नहीं। चलो,राजा के पास चलते हैं। वही इसका फैसला करेंगे। चिड़ी मान गई। दोनों राजा के पास गए। राजा ने दोनों की बातें सुनीं और फैसला दिया,बच्चे चिड़ी के नहीं,चिड़ा के हैं।

चिड़ी ने प्रतिरोध किया किंतु राजा ने अपने न्याय को सही बतलाया। दुख से भर कर चिड़िया राजा के नाख़ून पर गिर गई और वहीं उसी समय उसकी मृत्यु हो गई।

मर कर चिड़ी ने उसी राजा के मंत्री के घर जन्म लिया। मंत्री की कोई संतान नहीं थी। वह पुत्री का जन्म देख कर बहुत प्रसन्न हुआ। पूरे लाड़-प्यार से लड़की का पालन-पोषण होने लगा। जब वह लड़की दस-बारह वर्ष की हो गई तब उसने अपने पिता से कहा कि वे उसके लिए एक चितकबरा घोड़ा ख़रीद दें। मंत्री ने वैसा ही एक घोड़ा खरीद दिया। लड़की अब रोज़ उस घोड़े को लेकर राजा के घुड़साल में जाती और उस घोड़े को राजा की घोड़ियों के बीच छोड़ कर चली आती। इसी तरह कई दिन बीत गए।

कुछ महीनों बाद घोड़ियों ने बच्चों को जन्म दिया। सभी बच्चे चितकबरे थे। बच्चे बढ़ने लगे। बड़े होने पर मंत्री की बेटी ने उन बच्चों को अपने घर ला कर घुड़साल में बाँध दिया। यह देख कर मंत्री बोला,बेटी! यह तू क्या कर रही है? हमारे राजा के न्याय को नहीं जानती। जा, छोड़ दे घोड़ों को।

इस पर लड़की बोली,नहीं पिताजी। आप मेरे इस काम के बीच में पड़ें। मैं भी तो देखूँ ज़रा इस राजा के न्याय को!

यह सुन कर मंत्री चुप हो गया। धीरे-धीरे सारे नगर में इस अनहोनी की चर्चा होने लगी। इस तरह एक दिन यह बात राजा के कानों तक पहुँची। सुन कर राजा आग बबूला हो गया। सैनिकों को भेजा कि जाओ मंत्री को तुरंत हाज़िर करो। सैनिक पहुँचे तो लड़की बोली, जाओ। जाकर राजा से कह दो कि दोषी मेरे पिता नहीं अपितु मैं हूँ। इसीलिए मैं ही राजा के पास जाऊँगी। देखूँ ज़रा क्या दंड देते हैं वे मुझे। कह कर लड़की राज-दरबार में चली आई।

राजा ने क्रोध से पूछा,क्यों री लड़की! तेरी इतनी हिम्मत! तूने क्यों मेरे घोड़े अपने घुड़साल में बाँध रखे हैं?

लड़की ने संयत स्वर में कहा,महाराज! मेरे पास भी एक घोड़ा है,जिसका रंग चितकबरा है। आप ही देखें, आपकी घोड़ियों के बच्चों का रंग भी वैसा ही है। फिर उसने अपने घोड़े को राजा के घुड़साल में ले जाकर छोड़ने वाली बात भी बताई और कहा,अब आप ही न्याय कीजिए,महाराज! घोड़े किनके हुए?

इससे राजा और अधिक ग़ुस्से में गया। पूछा,किंतु घोड़े तुम्हारे कैसे होंगे? ये तो मेरी घोड़ियों के बच्चे हैं। इसीलिए ये मेरे हैं।

लड़की ने कहा,महाराज! आप याद कीजिये चिड़ा और चिड़ी के साथ किया गया अपना न्याय। जब चिड़ी के बच्चे चिड़ी के होकर चिड़ा के हो सकते हैं तब आपकी घोड़ियों के बच्चे मेरे घोड़े के क्यों नहीं हो सकते?

यह सुन कर राजा को वह घटना याद गई और वह अचेत होकर उस लड़की के पांवों पर गिर पड़ा और मर गया।

ऐसी है न्याय की बात।

स्रोत :
  • पुस्तक : बस्तर की लोक कथाएँ (पृष्ठ 100)
  • संपादक : लाला जगदलपुरी, हरिहर वैष्णव
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2013

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