दो मित्र
दो व्यक्ति थे। वे काम-धाम में गए हुए थे। एक दिन वे बाज़ार जाने की तैयारी कर रहे थे। वे दोनों अलग-अलग गाँवों के थे। एक व्यक्ति बढ़ई था। वह सोचने लगा कि मुझे घर से निकलते दोपहर हो गई। फिर उस व्यक्ति ने सोचा कि भले ही दोपहर हो गई हो किंतु मुझे जाना तो पड़ेगा ही। ऐसा सोच कर वह बाज़ार जाने की तैयारी करने लगा। नहाना-धोना किया और भोजन कर बाज़ार जाने की तैयारी करने लगा। उसने अपना सामान निकाला। बंडा,छुरी,तलवार,बरछी आदि लेकर बाज़ार जाने के लिए घर से निकल गया। चलते-चलते वह बाज़ार पहुँच गया। ऐसे ही गर्मी का दिन था। तेज धूप का समय! उसे बहुत ज़्यादा गर्मी लगी। तब ज़्यादा गर्मी लगने पर वह थोड़ी देर विश्राम करने के लिए एक पेड़ की छाँव में बैठ गया। वहाँ बैठ कर विचार करने लगा कि ऐसी धूप में मैं कहाँ जाऊँ? बहुत तेज़ धूप लग रही है। गर्मी कम हो जाए तब मैं बाज़ार में जाऊँगा। उसी समय उधर से एक रावत आ रहा था। उस रावत को देख कर बढ़ई ने विचार किया कि यह कौन आदमी है जो कंधे पर छोटी हंडिया लटकाए चला आ रहा है? उसने सोचा कि इस रावत की हंडिया में कुछ न कुछ अच्छा सामान होगा जिसे वह बहुत ही जतन से लटकाए चला आ रहा है। उसे मैं ले लूँगा। उसका सामान मैं ले लूँगा और अपना सामान उसे दे दूँगा।
फिर वे दोनों आपस में बातें करने लगे। तुम कहाँ जा रहे हो? कहाँ से आ रहे हो? इस तरह की बातें दोनों जन करने लगे। दोनों ने आपस में विचार किया कि तुम्हें भी दोपहर हो गई है और मुझे भी दोपहर हो गई है। उस रावत के पास एक छोटी हंडिया थी। उस हंडिया में घी की जगह गोबर-घुला पानी था। उसने उस हंडिया का मुँह कस कर बंद कर रखा था। बढ़ई ने विचार किया कि इस इंडिया में अवश्य ही घी होगा। रावत ने उस गोबर घुले पानी को घी बता कर बाज़ार में बेचने की सोची थी। तब रावत ने भी बढ़ई को देखा। वह भी बढ़ई के सामान के लिए ललचाने लगा। दोनों मन ही मन एक-दूसरे को ठगने की जुगत लगाने लगे। इसके मन में यह ऐसा सोच रहा था और उसके मन में वह वैसा। वे दोनों एक-दूसरे से झूठ कह कर एक-दूसरे को ठगने का विचार कर रहे थे। तब बढ़ई ने रावत से भाई! तुम्हारा जो भी सामान हो,वह तुम मुझे दे दो। बदले में मेरा सामान कहा,तुम ले लो।
यह सुन कर रावत भी अपना सामान उसे दे देने को तैयार हो गया। रावत ने अपना सामान बढ़ई को दे दिया और बढ़ई का सामान स्वयं ले लिया। तब बढ़ई ने रावत से कहा,अभी तुम्हारा घी मैं नहीं देखूँगा और मेरी तलवार तुम मत देखना। इस तरह बात कर उन्होंने एक-दूसरे से वचन लिया और एक-दूसरे का सामान आपस में बदल लिया। इसके बाद दोनों जन वहाँ से अलग-अलग हो गए। रावत तलवार लेकर अपने घर चला गया। घी लेकर बढ़ई चला गया अपने घर। इस तरह दोनों एक-दूसरे का सामान अदला-बदली कर अपने-अपने घर चले गए। घर पहुँच कर रावत सोचने लगा कि उसने बढ़ई को ठग लिया और बढ़ई सोचने लगा कि उसने रावत को ठग लिया। वे दोनों मन ही मन ख़ुश हो रहे थे। चलते-चलते वे दोनों अपने-अपने घर पहुँच गए। घर पहुँच कर रावत तलवार को देखने लगा। देखा तो वह तलवार की बजाए लकड़ी थी। तब रावत सोचने लगा कि यह तो तलवार न होकर लकड़ी है, इस व्यक्ति ने तो मुझे ही ठग लिया। यह तो बहुत चालबाज़ किस्म का व्यक्ति है,जिसने मुझे तलवार की बजाय लकड़ी दे दी और मेरा सामान लेकर मुझे ठग लिया।
उधर बढ़ई भी अपने घर पहुँच गया और इंडिया का मुँह खोल कर देखने लगा तो उसमें घी की बजाय गोबर-घुला पानी था। यह देख कर वह भी सोचने लगा कि रावत ने उसे ही ठग लिया। घी की बजाय गोबर-धुला पानी दे दिया।
इधर रावत विचार करने लगा कि यह भी मेरे ही समान ठग है। झूठी बातें कर मुझे ही ठग लिया। इसके साथ मित्रता करना अच्छा रहेगा। हम दोनों ही ठग हैं। रावत इस तरह विचार करने लगा। हम दोनों मित्र बन कर और आपस में मिल कर दूसरों के धन-दौलत लूट-लूट कर हम मज़े से खाते-रहते। बढ़ई भी सोचने लगा कि वह भी मेरे जैसा ही ठग है। हम दोनों मित्र बन कर एक-दूसरे का भला कर सकते हैं। इसके मन में यह ऐसा सोच रहा था और उसके मन में वह। ऐसा विचार कर एक दिन दोनों ने फिर से आपस में भेंट की। उनके मन में जो बात थी एक-दूसरे से मित्रता करने की,वह एक-दूसरे से कही। और ऐसा तय कर के उन लोगों ने गाँव-मोहल्ले के लोगों को बुलाने की सोची। ऐसा सोच कर दोनों ने बस्ती के लोगों को बुलाया। उन्हें बुला कर बताया कि वे दोनों मित्र बनने जा रहे हैं। महाप्रसाद बनेंगे वे। इस तरह कह कर उन दोनों ने गाँव के सभी महिला-पुरुष को आमंत्रित किया और उनकी उपस्थिति में आपस में एक-दूसरे के मित्र बन गए। इसके बाद सबने भोजन किया और अपने-अपने घर चले गए।
सब लोगों के जाने के बाद इन दोनों ने विचार किया कि अब हम दोनों दूसरे गाँवों में जाएँ। ऐसा विचार कर वे दोनों गाँव-गाँव जाने लगे और दूसरों को लूट-लूट कर जीवन-यापन करने लगे। इसके घर जाते और लूटते उसके घर जाते और लूटते। इस तरह ठगी और लूट करते वे धान-चावल लाते।
मेरी कहानी ख़त्म हुई।
- पुस्तक : बस्तर की लोक कथाएँ (पृष्ठ 154)
- संपादक : लाला जगदलपुरी, हरिहर वैष्णव
- प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
- संस्करण : 2013
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