अवधी लोकगीत : माँगत केवट से नाई खड़े दुइनौ भाई
awadhi lokgit ha mangat kewat se nai khaDe duinau bhai
रोचक तथ्य
संदर्भ—केवट-प्रसंग।
माँगत केवट से नाई खड़े दुइनौ भाई।।टेक।।
राजा दसरथ नृप सत, राम लच्छिमन रघुराई।
पिता दिहें मोहिं राज, मात बनबास पठाई।
केवट कहत सुना हम ऐसा, पद परसत पत्थर उडि जाई।।1।।
मैं तौ नीच निषाद, नहीं कुछ बेद पढाई।
पालत सब परिवार नाथ, याही नाव कमाई।
सच्च कहौं तुमसे रघुनंदन, हम तुमसे न लेब उतराई।।2।।
है पत्थर से नरम नाथ, मोरी काठ की नाई।
परिहै चरन रिढूका, नाई आकास उड़ाई।
जौ तू पार होन चहौ राजन, लीजे दूनौ चरन धोवाई।।3।।
सुनि केवट के बैन, बिहँसि बोले रघुराई।
लीजै चरन धोवाय, बेगि गंगाजल लाई।
पंडित चित्र बहाल पन याही, बहु बेगि नाउ लेइ आई।।4।।
दोनों भाई खडे हैं और केवट से नाव माँग रहे हैं।।टेक।।
राम ने बताया—हम राजा दशरथ के पुत्र राम-लक्ष्मण हैं। पिता जी ने मुझे राज्य दिया था, किंतु माता जी ने वनवास भेज दिया। केवट कहता है कि मैंने ऐसा सुना है कि आपके चरण का स्पर्श होते पत्थर उड़ जाता है।।1।।
मैं नीच जाति का निषाद हूँ, मैंने वेद की पढ़ाई नहीं की। मैं सब परिवार
इसी नाव की कमाई से पालता हूँ। हे रघुनंदन! मैं आप से सच कहता हूँ, मैं आपसे उतराई नहीं लूँगा।।2।।
हे नाथ! मेरी काष्ठ की नाव तो पत्थर से नरम है। जैसे आपके चरण की रज पड़ेगी, नाव आकाश में उड़ जाएगी। हे राजन्! यदि आप पार होना चाहें तो अपने दोनों चरण धुला लीजिए।।3।।
केवट के वचन सुनकर राम हँसकर बोले—शीघ्र गंगाजल लाकर चरण धुला लीजिए। पंडित चित्र बहाल का कहना है कि केवट का तो यही प्रण था, वह शीघ्र ही नाव ले आया।।4।।
- पुस्तक : हिंदी के लोकगीत (पृष्ठ 179)
- संपादक : महेशप्रताप नारायण अवस्थी
- प्रकाशन : सत्यवती प्रज्ञालोक
- संस्करण : 2002
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