कतरे पतरे से करया कें
katre patre se karya ken
कतरे पतरे से करया कें!
मन घर दए धरया कें!
पीन नितंब पयोधर उन्नत, लंक हीन भए आकें॥
बे अहार बारीक बार सें, जिए जान बरयाकें॥
तन तन किए हिए के गतरा, सिंग चड़े गिर धाँकें॥
उड़ उड़ परत चुनरिया ‘ईसुर’ चलती कमर चलाकें॥
तराशी हुई पतली कमर से उन्होंने मेरे मन को घड़ी करके रख दिया। उनके नितंब भारी, उरोज उन्नत और कमर पतली है। लगता है बिना आहार के मुश्किल से जी रहे हैं। बाल से बारीक है कमर। उन्होंने मेरे हृदय को काट कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया। अपनी विजय पर सिंह पर्वत पर चढ़ कर जयनाद करता है। अरे ईसुरी! उनकी चुनरी उड़-उड़ जाती है। वे कमर लचकाती चलती हैं।
- पुस्तक : ईसुरी की फागें (पृष्ठ 194)
- संपादक : घनश्याम कश्यप
- प्रकाशन : शब्दपीठ
- संस्करण : 1995
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