Font by Mehr Nastaliq Web

बखरी रइयत है भारे की

bakhrii ra.iyat hai bhaare kii

ईसुरी

ईसुरी

बखरी रइयत है भारे की

ईसुरी

बखरी रइयत है भारे की!

दई पिया प्यारे की।

कच्ची भींत उठी साटी की, छाह फूस चारे की॥

बे बंदेज डरी बेवाड़ा, ओह में दस द्वारे की॥

नई किबार किबरियाँ एकउ, बिना कुची तारे की॥

‘ईसुर’ चाय निकारौ जिदना, हमें कौन उआरे की॥

हम प्रियतम के दिए हुए मकान में रहते हैं। इसमें मिट्टी (हाड़, माँस) की कच्ची दीवारें खड़ी हैं और घासफूस (बालों) का छप्पर चढ़ा है। इसमें ठीक व्यवस्था है कोई परकोटा। ऊपर से (इंद्रियों के) दस दरवाज़े खुले पड़े हैं। उनमें किवाड़ हैं ताले-चाबियाँ। ईसुरी को जब चाहो तब इस मकान से हटा दो। हमें इसमें रहने में क्या फ़ायदा?

स्रोत :
  • पुस्तक : ईसुरी की फागें (पृष्ठ 76)
  • संपादक : घनश्याम कश्यप
  • प्रकाशन : शब्दपीठ
  • संस्करण : 1995

संबंधित विषय

यह पाठ नीचे दिए गये संग्रह में भी शामिल है

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY