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आशीर्वाद (शिवशंभु के चिट्ठे)

ashirvad (shivshambhu ke chitthe)

बालमुकुंद गुप्त

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बालमुकुंद गुप्त

आशीर्वाद (शिवशंभु के चिट्ठे)

बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

    तीसरे पहर का समय था। दिन जल्दी-जल्दी ढल रहा था और सामने से संध्या फुर्ती के साथ पाँव बढ़ाए चली आती थी। शर्मा महाराज बूटी की धुन में लगे हुए थे। सिल-बट्टे से भंग रगड़ी जा रही थी। मिर्च मसाला साफ़ हो रहा था। बादाम इलायची के छिलके उतारे जाते थे। नागपुरी नारंगियाँ छीलकर रस निकाला जाता था। इतने में देखा कि बादल उमड़ रहे हैं। चीलें नीचे उतर रही हैं, तबीयत भुरभुरा उठी इधर भंग उधर घटा, बहार में बहार। इतने में वायु का वेग बढ़ा, चीलें अदृश्य हुई। अँधेरा छाया। बूँदें गिरने लगीं। साथ ही तड़तड़-धड़धड़ होने लगी, देखा ओले गिर रहे हैं। ओले थमे, कुछ वर्षा हुई। बूटी तैयार हुई 'बम भोला' कह के शर्माजी ने एक लोटा भर चढ़ाई। ठीक उसी समय लाल डिग्गी पर बड़े लाट मिंटो ने बंग देश के भूतपूर्व छोटे लाट उडवर्न की मूर्ति खोली। ठीक एक ही समय कलकत्ते में यह दो आवश्यक काम हुए। भेद इतना ही था कि शिवशंभु शर्मा के बरामदे की छत पर बूँदें गिरती थीं और लार्ड मिंटो के सिर या छाते पर।

    भंग छानकर महाराज जी ने खटिया पर लंबी तानी। कुछ काल सुषुप्ति के आनंद में निमग्न रहे। अचानक धड़धड़ तड़तड़ के शब्द ने कानों में प्रवेश किया। आँखें मलते उठे। वायु के झोंकों से किवाड़ पुर्ज़े-पुर्ज़े हुआ चाहते थे। बरामदे के टीनों पर तड़ातड़ के साथ ठनाका भी होता था। एक दरवाज़े के किवाड़ खोलकर बाहर की ओर झाँका तो हवा के झोंके ने दस बीस बूँदों और दो चार ओलों से शर्माजी के श्रीमुख का अभिषेक किया। कमरे के भीतर भी ओलों की एक बौछाड़ पहुँची। फुर्ती से किवाड़ बंद किए, तथापि एक शीशा चूर हुआ। समझ में गया कि ओलों की बौछाड़ चल रही है। इतने में ठन-ठन करके दस बजे। शर्माजी फिर चारपाई पर लंबायमान हुए। कान, टीन और ओलों के सम्मिलन की ठनाठन का मधुर शब्द सुनने लगे। आँखें बंद, हाथ पाँव सुख में। पर विचार के घोड़े को विश्राम था। वह ओलों की चोट से बाजुओं को बचाता हुआ परिंदों की तरह इधर-उधर उड़ रहा था। गुलाबी नशे में विचारों का तार बंधा कि बड़े लाट फुर्ती से अपनी कोठी में घुस गए होंगे और दूसरे अमीर भी अपने-अपने घरों में चले गए होंगे, पर वह चीलें कहाँ गई होंगी? ओलों से उनके बाज़ू कैसे बचे होंगे, जो पक्षी इस समय अपने अंडे बच्चों समेत पेड़ों पर पत्तों की आड़ में हैं या घोसलों में छिपे हुए हैं, उन पर क्या गुज़री होगी। ज़रूर झड़े हुए फलों के ढेर में कल सवेरे इन बदनसीबों के टूटे अंडे, मरे बच्चे और इनके भीगे सिसकते शरीर पड़े मिलेंगे। हाँ, शिवशंभु को इन पक्षियों की चिंता है, पर यह नहीं जानता कि इस अभ्रस्पर्शी अट्टालिकाओं से परिपूरित महानगर में सहस्रों अभागे रात बिताने को झोंपड़ी भी नहीं रखते। इस समय सैकड़ों अट्टालिकाएँ शून्य पड़ी हैं। उनमें सहस्रों मनुष्य सो सकते, पर उनके ताले लगे हैं और सहस्रों में केवल दो-दो चार-चार आदमी रहते हैं। अहो! तिस पर भी इस देश की मिट्टी से बने हुए सहस्रों अभागे सड़कों के किनारे इधर-उधर की सड़ी और गीली भूमियों में पड़े भीगते हैं। मैले चिथड़े लपेटे वायु वर्षा और ओलों का सामना करते हैं। सवेरे इनमें से कितनों ही की लाशें जहाँ तहाँ पड़ी मिलेंगी। तू इस चारपाई पर मौजें उड़ा रहा है।

    आन की आन में विचार बदला, नशा उड़ा, हृदय पर दुर्बलता आई। भारत! तेरी वर्तमान दशा में हर्ष को अधिक देर स्थिरता कहाँ? कभी कोई हर्ष सूचक बात दस-बीस पलक के लिए चित्त को प्रसन्न कर जाए तो वही बहुत समझना चाहिए। प्यारी भंग! तेरी कृपा से कभी-कभी कुछ काल के लिए चिंता दूर हो जाती है। इसी से तेरा सहयोग अच्छा समझा है। नहीं तो यह अधबूढ़ा भंगड़ क्या सुख का भूखा है। घावों से चूर जैसे नींद में पड़कर अपने कष्ट भूल जाता है अथवा स्वप्न में अपने को स्वस्थ देखता है, तुझे पीकर शिवशंभु भी उसी प्रकार कभी-कभी अपने कष्टों को भूल जाता है।

    चिंता स्रोत दूसरी ओर फिरा। विचार आया कि काल अनंत है। जो बात इस समय है, वह सदा रहेगी। इससे एक समय अच्छा भी सकता है। जो बात आज आठ-आठ आँसू रुलाती है, वही किसी दिन बड़ा आनंद उत्पन्न कर सकती है। एक दिन ऐसी ही काली रात थी। इससे भी घोर अँधेरी-भादों कृष्णा अष्टमी की अर्द्धरात्रि। चारों ओर घोर अंधकार-वर्षा होती थी, बिजली कौंदती थी, घन गरजते थे। यमुना उत्ताल तरंगों में बह रही थी। ऐसे समय में एक दृढ़ पुरुष एक सध्यजात शिशु को गोद में लिए, मथुरा के कारागार से निकल रहा था। शिशु की माता शिशु के उत्पन्न होने के हर्ष को भूलकर दुःख से विह्वल होकर चुपके-चुपके आँसू गिराती थी, पुकार कर रो भी नहीं सकती थी। बालक उसने उस पुरुष को अर्पण किया और कलेजे पर हाथ रखकर बैठ गई। सुध आने के समय से उसने कारागार में ही आयु बिताई है। उसके कितने ही बालक वहीं उत्पन्न हुए और वहीं उसकी आँखों के सामने मारे गए। यह अंतिम बालक है। कड़ा कारागार, विकट पहरा, पर इस बालक को वह किसी प्रकार बचाना चाहती है। इसी से उस बालक को उसने पिता की गोद में दिया हैं कि वह उसे किसी निरापद स्थान में पहुँचा आवे।

    वह और कोई नहीं थे, यदुवंशी महाराज वसुदेव थे और नवजात शिशु कृष्ण। उसी को उस कठिन दशा में उस भयानक काली रात में वह गोकुल पहुँचाने जाते हैं। कैसा कठिन समय था। पर दृढ़ता सब विपदों को जीत लेती है, सब कठिनाइयों को सुगम कर देती है। वसुदेव सब कष्टों को सहकर यमुना पार करके भीगते हुए उस बालक को गोकुल पहुँचाकर उसी रात कारागार में लौट आए। वहीं बालक आगे कृष्ण हुआ, ब्रज का प्यारा हुआ, माँ-बाप की आँखों का तारा हुआ, यदुकुल मुकुट हुआ। उस समय की राजनीति का अधिष्ठाता हुआ। जिधर वह हुआ उधर विजय हुई, जिसके विरुद्ध हुआ उसकी पराजय हुई। वही हिंदुओं का सर्वप्रधान अवतार हुआ और शिवशंभु शर्मा का इष्टदेव, स्वामी और सर्वस्व। वह कारागार भारत संतान के लिए तीर्थ हुआ। वहाँ की धूल मस्तक पर चढ़ाने के योग्य हुई—

    बर ज़मीने कि निशाने क़फे पाए तो वुवद।

    सालहा सिजदये साहिब नज़रां ख़्वाहद बूंद॥

    (जिस भूमि पर तेरा पदचिह्न है, दृष्टि वाले सैकड़ों वर्ष तक उस पर अपना मस्तक टेकेंगे।)

    तब तो जेल बुरी जगह नहीं है। 'पंजाबी' के स्वामी और संपादक को जेल के लिए दुःख करना चाहिए। जेल में कृष्ण ने जन्म लिया है। इस देश के सब कष्टों से मुक्त करने वाले ने अपने पवित्र शरीर को पहले जेल की मिट्टी से स्पर्श कराया। उसी प्रकार 'पंजाबी' के स्वामी लाला यशवंत राय ने जेल में जाकर जेल की प्रतिष्ठा बढ़ाई, भारतवासियों का सिर ऊँचा किया, अग्रवाल जाति का सिर ऊँचा किया। उतना ही ऊँचा, जितना कभी स्वाधीनता और स्वराज्य के समय अग्रवाल जाति का अग्रोहा में था। उधर एडीटर अथावले ने स्थानीय ब्राह्माणों का मस्तक ऊँचा किया जो उनके गुरु तिलक को अपने मस्तक का तिलक समझते हैं। सुरेंद्रनाथ ने बंगाल की जेल की और तिलक ने बंबई की जेल का मान बढ़ाया था। यशवंत राय और अथावले ने लाहौर की जेल को वही पद प्रदान किया। लाहौरी जेल की भूमि पवित्र हुई। उसकी धूल देश के शुभचिंतकों की आँखों का अंजन हुई। जिन्हें इस देश पर प्रेम है, वह इन दो युवकों की स्वाधीनता और साधुता पर अभिमान कर सकते हैं।

    जो जेल, चोर डकैतों, दुष्ट हत्यारों के लिए है जब उसमें सज्जन-साधु, शिक्षित स्वदेश और स्वजाति के शुभचिंतकों के चरण स्पर्श हों तो समझना चाहिए कि उस स्थान के दिन फिरे। ईश्वर की उस पर दया दृष्टि हुई। साधुओं पर संकट पड़ने से शुभ दिन आते हैं। इससे सब भारतवासी शोक संताप भूलकर प्रार्थना के लिए हाथ उठावें कि शीघ्र वह दिन आवे कि जब एक भी भारतवासी चोरी, डकैती, दुष्टता, व्यभिचार, हत्या, लूट खसोट, जाल आदि दोषों के लिए जेल में जाए। जाए तो देश और जाति की प्रीति और शुभचिंता के लिए। दीनों और पदलित निर्बलों को सबलों के अत्याचार से बचाने के लिए, हाकिमों को उनकी भूलों और हार्दिक दुर्बलता से सावधान करने के लिए और सरकार को सुमंत्रणा देने के लिए। यदि हमारे राजा और शासक हमारे सत्य और स्पष्ट भाषण और हृदय की स्वच्छता को भी दोष समझें और हमें उसके लिए जेल भेजें तो वैसी जेल हमें ईश्वर की कृपा समझकर स्वीकार करना चाहिए और जिन हथकड़ियों हमारे निर्दोष देश बाँधवों के हाथ बँधें, उन्हें हेममय आभूषण समझना चाहिए। इसी प्रकार यदि हमारे ईश्वर में इतनी शक्ति हो कि वह हमारे राजा और शासकों को हमारे अनुकूल कर सके और उन्हें उदारचित्त और न्यायप्रिय बना सके तो इतना अवश्य करे कि हमें सब प्रकार के दोषों से बचाकर न्याय के लिए जेल काटने की शक्ति दे, जिससे हम समझें कि भारत हमारा है और हम भारत के। इस देश के सिवा हमारा कहीं ठिकाना नहीं। रहे इसी देश में, चाहे जेल में चाहे घर में। जब तक जिएँ-जिएँ और जब प्राण निकल जाएँ तो यहीं की पवित्र मट्टी में मिल जाएँ।

    ['भारतमित्र', 30 मार्च, 1907 ई.]

    स्रोत :
    • पुस्तक : बालमुकुंद गुप्त ग्रंथावली (पृष्ठ 122)
    • संपादक : नत्थन सिंह
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : हरियाणा साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2008

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