Font by Mehr Nastaliq Web

रस, लय और माधुरी

ras, lay aur madhuri

देवेंद्र सत्यार्थी

देवेंद्र सत्यार्थी

रस, लय और माधुरी

देवेंद्र सत्यार्थी

और अधिकदेवेंद्र सत्यार्थी

    रवींद्रनाथ ठाकुर ने एक स्थान पर लिखा है—'हमारे ग्रामों का स्वरूप स्त्रियों का सा ही है। ग्रामों की रक्षा में ही हमारी जाति की रक्षा है। नगरों में कहीं अधिक प्रकृति के समीप होने के कारण जीवन-स्रोत के साथ ग्रामों का घना संबंध बना रहता है। ग्राम्य जीवन में अनायास ही जीवन के घाव अच्छे हो जाते हैं। स्त्रियों की भाँति ही ग्राम हमारे जीवन के आवश्यक अंग हैं; वे हमें भोजन प्रदान करते हैं और इस उदर-पूर्ति के साथ-साथ ही वे हमारे आनंद के विषय हैं—यही वे स्थान हैं, जहाँ के स्त्री-पुरुष सरल जीवन काव्य की सृष्टि किया करते हैं और नैसर्गिक सौंदर्य-उत्सवों द्वारा जीवन को आनंदमय बनाया करते हैं।'

    जो ग़रीब होकर भी संतोष की माया से मालामाल हैं, जो स्वयं भूखे रहकर भी अपने द्वार पर आए अतिथियों का हृदय से स्वागत करते हैं, जो सुंदर होते हुए भी अपने सौंदर्य पर इतराते नहीं, जो शिशु की भाँति निष्कपट हैं और प्रकृति की मधुमय गोदी में बसते हैं; विश्वास, सरलता और भक्ति जिनकी संस्कृति के मूल-मंत्र हैं, भगवान के ऐसे अमृत पुत्र हमारे ग्रामों में ही बसते हैं। ग्रामों के स्वाभाविक जीवन में स्थान-स्थान पर निर्मल हृदय का साम्राज्य देखने में आता है, पर इसके विपरीत नगरों में, जहाँ हम मनुष्य निर्मित वस्तुओं से घिरे रहते हैं, कूटनीतिक मस्तिष्क का दौरा रहता है। तभी तो कहा है—ग्राम का निर्माण भगवान् ने स्वयं अपने हाथों से किया और नगरों को मनुष्य ने बनाया।

    हमारे देश-प्रेमी साहित्य-सेवियों का ध्यान ग्रामों की ओर जा रहा है, इसे हमें अपनी जागृति का लक्षण ही समझना चाहिए; पर हमारे वे साहित्य-सेवी जिन्होंने कभी स्वप्न में भी ग्राम्य-जीवन का रसास्वादन नहीं किया, ग्रामीण जन-साधारण के व्यक्तित्व से परिचित नहीं हो सकते। जिन्हें नगरी के राजसिक और तामसिक वातावरण ने व्यापारिकता के दाँव-पेंच सिखला दिए हैं, वे उस सहानुभूति को कहाँ से लाएँगे, जिसके द्वारा ग्रामवासी स्त्री-पुरुषों के सुख-दुःख का अध्ययन किया जा सके। जो ग्राम-वासियों की नैसर्गिक मुस्कान में अपनी मुस्कान और उनकी अनुराशि में अपने अश्र नहीं मिला सकता, उसे किसानों की तथा अन्य ग्राम-वासियों की मनोवृत्ति क्या प्रेरणा दे सकती है? ग्रामों और नगर के दरम्यान हमारे दुर्भाग्य से एक लंबी-चौड़ी खाई बनती जा रही है। इस गहरी खाई पर कोई पुल भी तो दृष्टिगोचर नहीं हो रहां है! आखिर नगरों से जो लोग ग्रामवासियों के हृदय-जगत् तक पहुँचना चाहें, वे ऐसा करें भी तो क्या करें? ग्राम्यजीवन के मनोवैज्ञानिक तथ्य, विचार केंद्र दृष्टि-कोण और आदर्श क्योंकर ही ढूँढ़े जाएँ, जबकि इस खाई के उस पार होने के साधन ही मौजूद नहीं? यदि हम किसी प्रकार ग्रामों में पहुँच भी जाएँ, तो भी हम अपने और ग्रामवासियों के बीच में इस गहरी और वितर्ण खाई को मौजूद पाते हैं। ग्रामवासियों की आम बोली में हम बोल नहीं सकते—बड़ी मुश्किल दरपेश हैं । प्रांत-प्रांत में यही हाल है? पंजाब, यू. पी., बिहार, बंगाल इत्यादि किसी भी प्रांत की बात ले लीजिए, वहाँ के नगर निवासी साहित्य-सेवी तथा अन्य राष्ट्र-प्रेमी विद्वान् आम किसानों तथा ग्रामवासियों की बोली में बात करने में अभ्यस्त नहीं। श्रीकृष्णदत्त पालीवाल अपने व्यक्तिगत अनुभव में यही बतलाते हैं—जब मैं किसी नेता अथवा धुरंधर विद्वान् को गाँवों में, किसानों में व्याख्यान देते हुए सुनता हूँ, तब मेरा दिल बैठने लगता है। सोचता हूँ, हे राम, इनकी बातें कोई समझ भी रहा है। देखता हूँ बेचारे श्रोता मुँह बाए, वक्ता के होठों को हिलते, उनके शरीर को डुलते और शरीर के अन्य अंगों को चलते देखकर समझते हैं कि ये कुछ कह ज़रूर रहे हैं; पर क्या कह रहे, राम जाने। यह बात मैंने पहले-पहल स्वयं अपने व्याख्यानों में अनुभव की थी। तब से अब तक मैं भाषा के कार्यकर्त्ता के व्याख्यान सुनकर उनसे गाँवों में व्याख्यान देना सीखता रहता हूँ।

    ग्रामों की आम बोली में ग्राम वासियों का साहित्य मौजूद है—प्रांत-प्रांत में वही हाल है; प्रांतीय भाषाओं का यह साहित्य बहुत प्राचीन ह और पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा है। लोक-साहित्य से परिचित होना अब हमारे लिए आवश्यक हो गया है, इस साहित्य का अपना ही महत्त्व है। वे गीत जो ग्राम्य-जीवन का ताना-बाना बन चुके हैं, वे लोकोक्तियाँ जो दैनिक जीवन में ग्रामवासियों की वाणी को ज़ोरदार बनाया करती हैं, वे कथाएँ जो अवकाश की मधुमय घड़ियों में ग्रामीण स्त्री-पुरुषों का मन बहलाया करती हैं, गश्ती नाटक-मंडलियों के आख्यान, ये सभी ग्राम-साहित्य के प्रमुख अंग हैं। इस साहित्य के अध्ययन से हम ग्राम-वासियों की मनोवृत्ति का सजीव परिचय पा सकेंगे। ख़ासकर ग्राम-गीतों का मनोवैज्ञानिक मूल्य तो बहुत ही ज़्यादा है; इनका संग्रह तथा अध्ययन उस पुल का काम दे सकता है, जो हमें नगरों और ग्रामों के बीच की गहरी तथा विस्तीर्ण खाई को पार करने में पुल का काम दे सकेगा।

    लोक-साहित्य की कई विशेषताएँ हैं। सबसे बड़ी विशेषता है इसकी स्वाभाविकता में सुसंस्कृत शृंगार के स्थान पर जंगल का-सा प्राकृतिक सौंदर्य ही प्रधान है। ख़ासकर लोक गीतों पर तो यह बात सोलह आने ठीक बैठती है। श्री रामनरेश त्रिपाठी ने ठीक ही लिखा है—ग्राम-गीत प्रकृति के उद्गार हैं। इनमें अलंकार नहीं, केवल रस है; छंद नहीं, केवल लय है; लालित्य नहीं, केवल माधुर्य है। प्रकृति जब तरंग में गाती है, तब वह गान करती है। उसके गीतों में हृदय का इतिहास इस प्रकार व्याप्त रहता है, जैसे प्रेम में आकर्षण, श्रद्धा में विश्वास और करुणा में कोमलता। प्रकृति के गान में मनुष्य-समाज इस प्रकार प्रतिबिंबित होता है, जैसे कविता में कवि, क्षमा में मनोबल और तपस्या में त्याग। प्रकृति संगीतमय है। ग्रहगण एक नियति कक्षा में फिरकर उस संगीत का कोई स्वर सिद्ध कर रहे हैं। झरना का अविराम नाद, पत्तों की मर्मर ध्वनि, चंचल जल का कल-कल, मेघ का गरजन, पानी का छम-छम बरसना, आँधी का हाहाकार, कलियों का चटकना, विक्षुब्ध समुद्र का महारव, मनुष्य की भिन्न-भिन्न भाषाएँ और विचित्र उच्चारण, खग, पशु, कीट-पतंग आदि की बोलियाँ, ये सब उस संगीत के सहायक मंद्र और तार; स्वर और लय हैं। वज्रपात तान है और नदियों का प्रवाह मूर्च्छना। लोक-गीत प्रकृति के उसी महासंगीत के अंश हैं।

    पूर्वकाल में किसी व्याध के तीर से क्रौंच पक्षी को निहित देखकर मर्माहत महर्षि वाल्मीकि के हृदय में स्वभावतः करुणा उत्पन्न हुई थी। उसी करुणा से कविता का जन्म हुआ था। जो हृदय वाल्मीकि के पास था, वह गाँवों में सदा रहता है, अब भी है। उसी में से प्रकृति का गान निकलता रहता है। कविता प्रकृति का गान है। वह मस्तिष्क से नहीं, हृदय से निकलती है। इसी से कृत्रिम सभ्यता के प्रकाश में उसका विकास नहीं होता। जन्म-स्थान गाँव है। जिनकी वाणी में मस्तिष्क नहीं, ग्राम-गीतों का हृदय है; जिनके विनय के परदे में छल नहीं, पश्चात्ताप है जिनकी मैत्री के फूल में स्वार्थ का कीट नहीं, प्रेम का परिमल है; जिनके मानस-जगत् में आनंद है, सुख है, शांति है, प्रेम है, करुणा है, संतोष है, त्याग है, क्षमा है, विश्वास है, उन्हीं ग्रामीण मनुष्यों के बीच में हृदय नामक आसन पर बैठकर प्रकृति गान करती है। प्रकृति के वे ही गान ग्राम-गीत हैं।

    लोक साहित्य में ग्राम-वासियों के जीवन का 'सोरठ' तथा 'विहाग' सुनने को मिलता है। इसकी स्वाभाविक रूप-रेखा हमारे राष्ट्रीय निर्माण में अवश्य सहायक होगी। देश के उन नर-नारियों ने जो अन्यदेशीय लेखकों की रचनाओं के अनुवाद में लीन हैं या जो अपने देश के गिने-चुने नागरिक कवियों तथा लेखकों में ही अपने साहित्य की इति श्री समझते हैं, हम यह प्रार्थना किए बिना नहीं रह सकते कि वे अपने देश के लोक साहित्य से भी जानकारी हासिल करें, और अपने जन-साधारण की रचना को भी राष्ट्रीय साहित्य-कानन में लाने का प्रयत्न करें। इन रचना की स्वाभाविकता हमारे साहित्य तथा जीवन की बढ़ती हुई अस्वाभाविकता को बंद करेगी! गुजराती के लेखक श्री कालेलकरजी ने इसी तथ्य को ओर इशारा करते हुए लिखा है—आज का युग कृत्रिम है। हमारी भाषा, हमारा रिवाज़ हमारा विवेक, हमारा हेतु, हमारी नीतिमत्ता, हमारा जीवन सभी कृत्रिम हो गए हैं। खुली हवा में चलना, फिरना या सोना हमारे लिए भय और लज्जा का विषय बन गया है। इसी प्रकार सामाजिक, राजकीय और कौटुम्बिक व्यवहारों में स्वाभाविक होने के लिए हममें कुछ दम नहीं, जैसे स्वाभाविकता में मौत या सर्वनाश की आशंका हो। लोक-साहित्य के अध्ययन से तथा इसके उद्धार से हम अपनी कृत्रिमता का कवच तोड़ सकेंगे और स्वाभाविकता की शुद्ध हवा में चल-फिरकर शक्ति-संपन्न हो सकेंगे।

    कवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने ग्राम का महत्त्व प्रकट करते हुए एक लेख में लिखा है—'ग्रामों के साथ-साथ शहर की सृष्टि हुई है! वहाँ राज्य सत्ता के केंद्र, सिपाहियों के किले और व्यापारियों के मालगुदाम होते हैं, पढ़ने-पढ़ाने के लिए कितने ही विद्यार्थी और अध्यापकगण एक स्थान पर एकत्रित होते हैं।... संसार के सुदूर प्रदेशों के साथ जान पहचान होती है। वहाँ लेन-देन का बाज़ार गरम रहता है और आदान प्रदान का सुयोग होता है। वहाँ भूमि के ऊपर पत्थर के ढेरों के ढेर पड़े रहते हैं। शहर ग्रामों का ख़ून चूसते हैं और इसे फल-स्वरूप देते कुछ भी नहीं। आज ग्राम के दीपक बुझ गए हैं और शहरों में कृत्रिम दीपकों का प्रकाश है—इस शहरी प्रकाश के साथ सूर्य, चंद्रमा और सितारों का ज़रा भी संबंध नहीं है। प्रतिदिन सूर्योदय के समय जो प्रणति रहती थी, सूर्यास्त के समय जो आरती-प्रदीप जला करते थे आज वह कहीं भी नहीं हैं। केवल सरोवरों का जल ही नहीं सूखा, हृदय भी सूख गए हैं। जीवन के आनंद से ओत-प्रोत होकर नृत्य-गीत जंगली फूलों की भाँति खिल उठते थे, आज वे सब मुरझाकर धूल-धूसरित हो गए हैं।

    प्राचीन काल में हमारे ग्रामों की अवस्था बहुत उन्नत थी। ग्रामीण नर-नारियों में संगीत और नृत्य कला का बहुत प्रचार था। दैनिक जीवन में ऐसे कितने ही अवसर आते थे जब वे नाचते हुए 'सत्यम शिवम् सुन्दरम्' का गान किया करते थे। इन गीतों में हृदय के गहरे और ज़ोरदार भावों का प्रकाश किया करते थे। मातृभूमि का सजीव चित्र प्रस्तुत करते हुए पुरातन कवि गा उठा था—

    यस्यां गायन्ति नृत्यन्ति मर्त्या व्येलवाः
    —'जहाँ आनंद मनानेवाले लोग गाते हैं और नाचते हैं?

    संगीत नृत्य और काव्य को एक दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। कल्पना-सजीव ग्राम-वासियों के हृदय स्रोत से अहिर्निश न जाने कितनी ही नाचती हुई कविताएँ झरती रहती हैं। मानवता के इस बाल्यकाल में नर-नारी प्रकृति के बहुत समीप रहते थे। प्रकृति के स्वर उनकी हृदय वीणा को स्पन्दित करते रहते थे। उन दिनों घटना और कल्पना में सगी बहनों का-सा संबंध रहता था। सामाजिक जीवन की आरंभिक अवस्था में भी कविता उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर सकती है, यह बात लोकगीतों के अध्ययन के बिना समझ में आ सकती है। कदाचित् कविता के बाल्यकाल की ओर संकेत करते हुए किसी ने कहा था—

    न स शब्दो न तद्वाच्यं न स न्यायो न सा कला 
    जायते यन्न काव्यांगमहते भारो महाकवे
    —'न कोई शब्द है, न कोई वाणी है, न कोई न्याय है और न कोई काल है जो काव्य का अंग न हो।'

    अनेक देशों में किसान आज भी इस भावना से कि फसलें और भी ऊँची हो जाएँ, उछल-उछलकर अनेक सामूहिक नृत्यों में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया करते हैं। ये नृत्य उन्हें उन पूर्वजों के साथ एक सूत्र में बाँध देते हैं जिन्होंने सर्वप्रथम प्रकृति को बहुत समीप से देखा था! जाने किस-किस गुप्त-स्थान, मूल हृदय तथा गुप्त इतिहास की वाणी इन शब्दों को ज़ोरदार रंग प्रदान किया करती है। इनकी सरसता पर मुग्ध होकर हम कह उठते हैं—मानवता का बहुमूल्य इतिहास इन नृत्यों के एक-एक ताल के रहस्य-गीतों के एक-एक स्वर में निहित है। ये बहुमूल्य गीत हैं।

    युग-युग के अनेक सुखद और दुःखद चित्र भारतीय लोकगीतों में भरे पड़े हैं। इनके दर्पण में हम एक महान् संस्कृति की रूपरेखा देखकर आनंद-विभोर हो उठते हैं।

    एक गुजराती गीत सुनिए! ससुराल में बैठी कोई कन्या नैहर की स्मृति में अटपटे बोल गुनगुनाने लगती है—

    म्हने सतावशो न कोई
    हूँ छू परदेशवासी पंखिणा
    म्हने दुभावशो न कोई
    हूँ छू परदेशवासी पंखणी
    दूर दूर छे देशवा डुंगरा ने,
    दूर गिरिवर करे माल
    दूर दूर छे निर्मलां नारत्यान
    दूर छे भोमका ए रसाल
    म्हने सतावशो न कोई
    मीठो महेरन म्हारो बांधवो
    ने अमृत मीठड़ी माय
    देव दीघां मारां भाँडवड़ाँ जे
    सर्वे सुखमां रहतां त्यांय
    म्हने सतावशो न कोई
    छांडी ए म्हारा दादाजीना देश ने
    बसु छु हूं दूर दूर दूर
    सोणलां सताव म्हने रातदिन ने
    झाँखी गालुं आँखड़ी नुँ नूर
    म्हने शतावशो न कोई
    भाग्य म्हारु लाब्यूँ अहीं दोरी 
    राम दऊँ कोने हैं दोख
    एकलवायी हुँ पंखिणी तोये
    राखुँ शो अन्तरमां रीश (रोष)
    म्हने शतावशो न कोई

    —'मुझे कोई न सतावे,
    मैं तो एक परदेशिन चिड़िया हूँ।
    मुझे कोई कष्ट न पहुँचाए,
    मैं तो एक परदेशिन चिड़िया हूँ।
    मेरे देश के टीले बहुत दूर हैं,
    मेरे देश की पर्वतमाला बहुत दूर है।
    दूर है वहाँ का निर्मल नीर,
    दूर है वहाँ की रसाल भूमि
    मुझे कोई न सतावे।
    वे सब वहाँ सुख में रहते हैं।
    मुझे कोई न सतावे।
    मीठे सागर के समान हैं मेरे बंधु-बांधव
    अमृत की सी मीठी है मेरी माँ।
    भगवान ने मुझे बहन-भाई दिए हैं
    अपने दादाजी का देश छोड़कर,
    मैं यहाँ इस सुदूर प्रदेश में रहती हूँ।
    उनकी याद मुझे दिन-रात सताती है!
    रो-रो कर मैंने आँखों का नूर गवाँ लिया,
    मुझे कोई न सतावे।
    मेरा भाग्य ही मुझे यहाँ खींच लाया है।
    हे राम! भला मैं किसे दोष दूँ,
    मैं तो एकाकिनी चिड़िया हूँ।
    भला मैं दिल में क्या रोष रखूँ?
    मुझे कोई न सतावे।'

    नैहर की कल्पना में प्रायः प्रांत-प्रांत में मातृभूमि का चित्र सजग हो उठा है। विवाह के पश्चात् बहिन ससुराल में चली आई। उसके भाई को अब इतनी फ़ुर्सत भी नहीं रही कि कभी बहिन से भेंट कर सके। एक दूसरे गुजराती गीत के शब्दों में वह बहन किसी राह चलते बटोही से कह रही है—

    म्हारा महियरिया ना पंथी
    सन्देशो म्हारा वीर ने केजे
    दूर बसे के तार ब्हेनड़ी
    संभारगूँ शू न रह्यूँ स्हेजे
    म्हारा मांयरिया ना पंथी
    ब्हाणला वीत्यां कैक मासनां
    तो ये ना साँवरे शु ब्हेनी
    कामन कीधांशु भाभलड़ीए रानी
    म्हारा महियरिया ना पंथी
    के ब्हाल सोयां बालुड़ानी संगे
    विसारी मूकी शूं त्हारी ब्हेनड़ी
    बाट जोऊ न्यालं पन्थने हुं
    आवे म्हारो वीरो हुँ घेलड़ी
    म्हारा महियरिया ना पंथी
    आब्या रूड़ा पर्वणी ना दिन ने
    ना, ब्यांबोरा कई त्हारा संभारणां
    संभारजे वीरा कदिक ब्हेनी
    ने लेले ब्हेनीनां मन भर वारणां
    म्हारा महियरिया ना पंथी

    —'ओ मेरे नैहर के पथिक!
    मेरे भाई से मेरा संदेश कहना— 
    तेरी बहिन इस सुदूर प्रदेश में बसती है,
    क्या तुझे उसकी याद भी नहीं रही?
    ओ मेरे नैहर के पथिक!
    दिन बीत गए, महीने गुज़र गए,
    तुझे अपनी बहिन की ज़रा भी याद नहीं आती।
    मुझ पगली ने ऐसा कौनसा कर्म किया!
    मेरी ख़बर तक नहीं लेता?
    क्या तूने अपने बाल बच्चों में घुल मिलकर,
    अपनी बहन को बिलकुल ही भुला दिया है?
    मैं तुम्हारी बाट जोहती हूँ,
    कि मुझ पगली का भाई कब आएगा।
    ओ मेरे नैहर के पथिक!
    त्यौहार का शुभ दिन आ गया,
    भाई तुम्हारा सुख-समाचार नहीं आया।
    हे भाई! कभी अपनी बहिन की भी ख़बर लिया करो।
    अपनी प्यारी बहिन के हृदय से निकली असीस लिया करो!
    ओ मेरे नैहर के पथिक!'

    अब एक सिंधी गीत का रस चखिए। कहते हैं, कोई राजा अपने किसी सेवक की पत्नी पर आसक्त हो गया था, जिसने अपने सतीत्व को बचाने के लिए कोई कसर उठा नहीं रखी। कौन जाने इस सिंधी कुलवधू का वक्तव्य सुनकर राजा का दृष्टिकोण बदल गया था या नहीं। पर इससे इतना तो स्पष्ट है कि सिन्धी लोकगीत ने सामाजिक नैतिकता का समर्थन करने का दायित्व ख़ूब निभाया है—

    आज अबेला क्यूं आविया
    कहरो मुज में काम
    थाँरो महँतो घर नहीं
    इरा सुगनी रो शाम
    शहर उजेनी हूँ फिरिओ
    महिले आवियो आज
    तास अवेली आवियो
    तुज बुलावन काज
    चन्द्र गयो घर आपने
    राजा तू भी घर जा
    मैं अबला-मी-से कैसे बलनों
    तू केहर हूँगा
    अवि डिआं आपरी
    अणि मत लोपो आप
    हूँ कवली तूँ ब्राह्मण
    हूँ बेटी तूँ बाप

    —'आज इस असमय में आप यहाँ क्यों आए हैं?
    मुझसे आपका क्या काम?
    आपका सेवक घर में नहीं है,
    यहाँ तो अपने पति की सती साध्वी पत्नी है।
    मैं शहर उज्जैन से चलकर आया हूँ।
    आज मैं तुझे पकड़ ले जाने के लिये इस महल में आया हूँ।
    इसलिये ज़रा देर हो गई है।
    हे राजा, चाँद अपने घर चला गया है।
    आप भी अपने घर जाइए।
    मुझ अबला से कैसा वार्तालाप?
    आप सिंह हैं और मैं गाय हूँ।
    मैं तुम्हें तुम्हारी ही शपथ देती हूँ।
    देखना इसे झूठी न होने देना।
    मैं गाय हूँ, और तुम ब्राह्मण हो।
    मैं कन्या हूँ और तुम पिता हो।

    हमारे लोकगीत हमारे अमूल्य रत्न हैं, जो हमारे देश के सात लाख ग्रामों में बिखरे पड़े हैं। आवश्यकता है ऐसे नवयुवकों की, जो अपने-अपने प्रांतों के लोकगीत संग्रह करें और राष्ट्रीय साहित्य की वृद्धि के लिए इन्हें अनुवाद सहित प्रकाशित करें।

    रस, लय और माधुरी—ये भारतीय लोकगीतों की विशेषताएँ हैं, जिनकी ओर हमारे साहित्यकारों का ध्यान विशेष रूप से जाना चाहिए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बेला फूले आधी रात (पृष्ठ 10)
    • रचनाकार : देवेंद्र सत्यार्थी
    • प्रकाशन : राजहंस प्रकाशन
    • संस्करण : 1948
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

    टिकट ख़रीदिए