भारतीय संस्कृति की देन
bharatiy sanskriti ki den
भारतीय संस्कृति पर कुछ कहने से पहले मैं एक निवेदन कर देना कर्त्तव्य समझता हूँ कि संस्कृति को किसी देश-विशेष या जाति-विशेष की अपनी मौलिकता नहीं मानता। मेरे विचार सारे संसार के मनुष्यों की एक सामान्य मानव-संस्कृति हो सकती है। यह दूसरी बात है कि वह व्यापक संस्कृति अब तक सारे संसार में अनुभूत और अंगीकृत नहीं हो सकी है। नाना ऐतिहासिक परंपराओं के भीतर में गुज़रकर और भौगोलिक परिस्थितियों में रहकर संसार के भिन्न-भिन्न समुदायों ने उस महान् मानवी संस्कृति के भिन्न-भिन्न पहलुओं का साक्षात्कार किया है। नाना प्रकार की धार्मिक भावनाओं, कलात्मक प्रयत्नों और सेवा, भक्ति तथा योगमूलक अनुभूतियों के भीतर में मनुष्य उस महान सत्य के व्यापक और परिपूर्ण रूप को क्रमशः प्राप्त करता जा रहा है, जिसे हम 'संस्कृति' शब्द द्वारा व्यक्त करते हैं। यह संस्कृति शब्द बहुत अधिक प्रचलित है, तथापि यह अस्पष्ट रूप में ही समझा जाता है। इसकी सर्वसम्मत कोई परिमाषा नहीं बन सकी है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि और संस्कारों के अनुसार इसका अर्थ समझ लेता है। फिर इसको एकदम अस्पष्ट भी नहीं कह सकते, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य जानता है कि मनुष्य की श्रेष्ठ साधनाएँ ही संस्कृति है। इसकी अस्पष्टता का कारण यही है कि अब भी मनुष्य इसके संपूर्ण और व्यापक रूप को देख नहीं सका है। संसार के सभी महान तत्त्व इसी प्रकार मानव-चित्त में अस्पष्ट रूप से आभासित होते हैं। उनका आभासित होना ही उनकी सत्ता का प्रमाण है। मनुष्य की श्रेष्ठतर मान्यताएँ केवल अनुभूत होकर ही अपनी महिमा सूचित करती है। उनको स्पष्ट और सुव्यवस्थित परिभाषा में बाँधना सब समय संभव नहीं होता है। केवल नेति-नेति कहकर ही मनुष्य ने उस अनुभूति को प्रकाशित किया है। अपनी चरम सत्यानुभूति को प्रकट करते समय कबीरदास ने इसी प्रकार की भारतीय संस्कृति की देन विवशता का अनुभव करते हुए कहा था—“ऐसा लो नहिं तैसा लो, मैं केहि विधि कही अनूठा लो!” मनुष्य की सामान्य संस्कृति भी बहुत-कुछ ऐसी ही अनूठी वस्तु है। मनुष्य ने उसे अभी तक संपूर्ण पाया नहीं है; पर उसे पाने के लिए व्यग्र भाव से उद्योग कर रहा है। यह मार-काट, नोंच-खसोट और झगड़ा-टंटा भी उसी प्रयत्न के अंग हैं। आपको यह बात बहुत विरोधाभास-सी लगेगी, पर है सत्य। रास्ता खोजते समय भटक जाना, थक जाना या झुंझला पड़ना, इस बात के सबूत नहीं है कि रास्ता खोजने की इच्छा ही नहीं है। कविवर रवींद्रनाथ ने अपनी कविजनोचित भाषा में इस बात को इस प्रकार कहा है कि यह जो लुहार की दुकान की खटाखट और धूल-धक्कड़ है, इनसे घबराने की ज़रूरत नहीं है। वहाँ वीणा के तार तैयार हो रहे हैं। जब ये तार बन जाएँगे तो एक दिन इनकी मधुर संगीत-ध्वनि से निश्चय ही मन और प्राण तृप्त हो जाएँगे। ये युद्ध-विग्रह, ये कूटनीति दाँव-पेंच, ये दमन और शोषण के साधन, ये सव एक दिन समाप्त हो जाएँगे। मनुष्य दिन-दिन अपने महान् लक्ष्य के नज़दीक पहुँचता जाएगा सामान्य मानव-संस्कृति ही ऐसा दुर्लभ लक्ष्य है। मेरा विश्वास है कि प्रत्येक देश और जाति ने अपनी ऐतिहासिक परंपराओं और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार उस महान लक्ष्य के किसी-न-किसी पहलू का अवश्य साक्षात्कार किया है। ज्यों-ज्यों वैज्ञानिक साधनों के परिणाम स्वरूप भिन्न-भिन्न देश और भिन्न-भिन्न जातियाँ एक-दूसरे के नज़दीक आती जाएँगी, त्यों-त्यों इन अंश-सत्यों की सार्थकता प्रकट होती जाएगी और हम सामान्य व्यापक सत्य को पाते जाएँगे। आज की मारा-मारी इसमें थोड़ी रुकावट डाल सकती है; पर इस प्रयत्न को नि:शेष भाव से समाप्त नहीं कर सकती। अपने इस विश्वास का कारण मैं आगे बताने का प्रयत्न करूँगा।
जो आदमी ऐसा विश्वास करता है, उससे संस्कृति के साथ 'भारतीय' विशेषण जोड़ने का अर्थ पूछना नितांत संगत है! क्या 'भारतीय' से मतलब भारतवर्ष के समस्त अच्छे-बुरे प्रयत्न और संस्कार है? नहीं, समस्त भारतीय संस्कार अच्छे ही है या मनुष्य की सर्वोत्तम साधना की भारतीय संस्कृति की देन ओर अग्रसर करने वाले ही है; ऐसा मैं नहीं मानता। ऐसा देखा गया है कि एक जाति ने जिस बात को अपना अत्यंत महत्त्वपूर्ण संस्कार माना है, वह दूसरी जाति की सर्वोत्तम साधना के साथ मेल नहीं खाता। ऐसा भी हो सकता है कि एक जाति के संस्कार दूसरी जाति के संस्कार के एकदम उल्टे पड़ते हों। हो सकता है कि एक जाति मंदिरों और मूर्तियों के निर्माण में ही अपनी कृतार्थता मानती हो और यह भी हो सकता है कि दूसरी जाति उनको तोड़ डालने को ही अपनी चरम सार्थकता मानती हो। ये दोनों परस्पर-विरुद्ध है। ऐसे स्थलों पर विचार करने की आवश्यकता होगी। श्रेष्ठ लक्ष्य परस्पर-विरोधी नहीं होता। प्रसिद्ध संत रज्जबदास ने कहा था—“सव सोच मिल सो सांच है, ना मिलै सो झूठ।” संपूर्ण सत्य अविरोधी होता है। जहाँ भी विरोध दीखे, वहाँ सोचने की ज़रूरत होगी। हो सकता है कि दो भिन्न-भिन्न जन-समुदाय मोहवश दो असत्य बातो को ही बड़ा सत्य मान बैठे हों। हो सकता है कि दोनों में एक सही हो और दूसरा ग़लत। साथ ही यह भी हो सकता है कि दोनों सही रास्ते पर हो; पर उनके दृष्टिकोण ग़लत हो। यदि हमें अपनी ग़लती मालूम हो तो उसे निर्मम भाव से छोड़ देना होगा। महाभारत ने बहुत पहले घोषणा की थी कि जो धर्म दूसरे धर्म को बाधित करता है, वह धर्म नहीं है, कुधर्म है। सच्चा धर्म अविरोधी होता है—
धर्मो यो बाधते धर्म न स धर्मो कुधर्म तत्।
अविरोधी यो धर्मः स धर्मो मुनिसत्तम।।
मैं जब 'भारतीय' विशेषण जोड़कर संस्कृति शब्द का प्रयोग करता हूँ, तो मै भारतवर्ष द्वारा अधिगत और साक्षात्कृत अविरोधी धर्म की ही बात कहता हूँ। अपनी विशेष भौगोलिक परिस्थिति में और विशेष ऐतिहासिक परंपरा के भीतर से मनुष्य के सर्वोत्तम को प्रकाशित करने के लिए इस देश के लोगों ने भी कुछ प्रयत्न किए हैं। जितने अंश में वह प्रयत्न संसार के अन्य मनुष्यों के प्रयत्नों का अविरोधी है, उतने अंश में वह उनका पूरक भी है। भिन्न-भिन्न देशों और भिन्न-भिन्न जातियों के अनुभूत और साक्षात्कृत अन्य अविरोधी धर्मों की भाँति वह मनुष्य की जययात्रा में सहायक है। वह मनुष्य के सर्वोत्तम को जितने अंश में प्रकाशित और अग्रसर कर सका है, उतने ही अंश में वह सार्थक और महान है। वही भारतीय संस्कृति है, उसको प्रकट करना, उसकी व्याख्या करना या उसके प्रति जिज्ञासा-भाव उचित है। यह प्रयास अपनी बड़ाई का प्रमाणपत्र संग्रह करने के लिए नहीं है, बल्कि मनुष्य की जययात्रा में सहायता पहुँचाने के उद्देश्य से प्ररोचित है। इसी महान् उद्देश्य के लिए उसका अध्ययन, मनन और प्रकाशन होना चाहिए।
मनुष्य की जययात्रा! क्या मनुष्य ने किसी अज्ञात शत्रु को परास्त करने के लिए अपना दुर्द्धर रथ जोता है? मनुष्य की जययात्रा! क्या जान-बूझकर लोकचित्त को व्यामोहित करने के लिए वह पहले ही जैसा वाक्य बनाया गया है? मनुष्य की जययात्रा का क्या अर्थ हो सकता है? परंतु मैं पाठकों को किसी प्रकार के शब्द-जाल में उलझाने का संकल्प ले कर नहीं आया हूँ। मुझे यह वाक्य सचमुच बड़ा बल देता है। न जाने किस अनादि काल के एक अज्ञात मुहूर्त्त में यह पृथ्वी नामक ग्रहपिंड सूर्य-मंडल से टूटकर उसके चारों ओर चक्कर काटने लगा था। मुझे उस समय का चित्र कल्पना के नेत्रों से देखने में बड़ा आनंद आता है। उस सद्यस्त्रुटित धरित्री-पिंड में ज्वलंत गैस भरे हुए थे। कोई नहीं जानता कि इन असंख्य अग्निगर्भ कणों में से किसमें या किनमें जीवतत्त्व का अंकुर वर्तमान था। शायद वह सर्वत्र परिव्याप्त था। इसके बाद लाखों वर्ष तक धरती ठंडी होती रही, लाखों वर्ष तक उस पर तरल तप्त धातुओं की लहाछेह वर्षा होती रही, लाखों वर्ष तक उसके भीतर और बाहर प्रलयकांड मचा रहा, पृथ्वी अन्यान्य ग्रहों के साथ सूर्य के चारों ओर उसी प्रकार नाचती रही, जिस प्रकार खिलाड़ी के इशारे पर सरकस के घोड़े नाचते रहते हैं। जीवतत्त्व स्थिर-अविक्षुब्ध भाव से उचित अवसर की प्रतीक्षा में बैठा रहा। अवसर आने पर उसने समस्त जड़शक्ति के विरुद्ध विद्रोह करके सिर उठाया—नगण्य तृणांकुर के रूप में! तब से आज तक संपूर्ण जड़शक्ति अपने आकर्षण का समूचा वेग लगाकर भी उसे नीचे की ओर नहीं खींच सकी। सृष्टि के इतिहास में यह एकदम अघटित घटना थी। अब राक महाकर्ष (ग्रेबिटेशन पावर) में विराट वेग को रोकने में कोई समर्थ नहीं हो सकता था। जीवतत्व प्रथम बार अपनी ऊर्ध्वगामिनी वृत्ति की अदनी ताक़त के बल पर इस महाकर्ष अस्वीकार कर सका। तब से यह निरंतर अग्रसर होता गया। मनुष्य उसी की अंतिम परिणति है। यह एक कोष में अनेक कोशों के जटिल संघटन में कर्मेंद्रियों से ज्ञानेंद्रियों की ओर ज्ञानेंद्रियों से मन और बुद्धि की तरफ़ विकसित होता हुआ मानवात्मा के रूप में प्रकट हुआ। पंडितों ने देखा कि मनुष्य तक आते-आते प्रकृति ने अपने कारख़ाने में असंख्य प्रयोग किए हैं। पुराने जंतुओं की विशाल ठठरियाँ आज भी यत्र-तत्र मिल जाती है और उन असंख्य प्रयोगों की गवाही दी जाती है। प्रकृति अपने प्रयोग में कृपण कभी नहीं रही है। उसने बरबादी की कभी परवाह नहीं की। दस वृक्षों के लिए वह दस लाख बीज बनाने में कभी कोताही नहीं करती। यह सब क्या अर्थ की अंधता है, सुस्पष्ट योजना का अभाव है या हिसाब न जानने का दुष्परिणाम है? कौन बताए कि किस महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रकृति ने इतनी बरबादी सही है? हम येवल इतना ही जानते हैं कि जब जीवतत्त्व समस्त विघ्न-बाधाओं को अतिक्रम करके मनुष्य रूप में अभिव्यक्त हुआ, तब इतिहास ही बदल गया। जो कुछ जैसा होता है, वह होकर ही रहेगा—यही प्रकृति का अचल विधान है। कार्य-कारण बनता है और नए कार्य को जन्म देता है। कार्य-कारणों की इस नीरंध्र ठोस परंपरा में इच्छा का कोई स्थान नहीं था। जो जैसा होने को है, वह होकर ही रहेगा। इसी समय मनुष्य आया। उसने इस साधारण नियम को अस्वीकार किया। उसने अपनी इच्छा के लिए न जाने कहाँ से एक फाँक निकाला। जो जैसा है, वैसा ही मान लेने की विवशता को उसने नहीं माना; जैसा होना चाहिए, वही बड़ी बात है। इस जगह से सृष्टि का दूसरा अध्याय शुरू हुआ। एक बार कल्पना कीजिए, तरल-तप्त धातुओं के प्रचंड समुद्र की, निरंतर झरने वाले अग्निगर्भ-मेघों की; विपुल जड़-सघात की, और फिर कल्पना कीजिए क्षुद्राकार मनुष्य की! विराट् ब्रह्मांड-निकाय, कोटि-कोटि नक्षत्रों का अग्निमय आवर्त्त-नृत्य, अनंत शून्य में निरंतर उद्भूयमान और विनाशमान नीहारिका पुंज विस्मयकारी हैं, पर उनसे अधिक विस्मयकारी है मनुष्य, जो नगण्य स्थान-काल में रहकर इनकी नाप-जोख करने निकल पड़ा है! क्या मनुष्य इस सृष्टि की अंतिम परिणति है? क्या विधाता ने केशवदास के बीरबल की भाँति इस कृती बीज की रचना करके हाथ झाड़ लिया है—कै करतार वली बलबीर दियो करतार दुहूँ करतारी? कौन कह सकता है? परंतु क्या यह मनुष्य की अमोघ जययात्रा नहीं है? क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि समस्त ग़लतियों के बावजूद मनुष्य मनुष्यता की उच्चतर अभिव्यक्तियों की ओर ही बढ़ रहा है?
यह जो स्थूल से सूक्ष्म की ओर अग्रसर होना है, जो कुछ जैसा होने वाला है, उसको वैसा ही न मानकर जैसा होना चाहिए, उसकी ओर जाने का प्रयत्न है, यही मनुष्य की मनुष्यता है! अनेक बातो में मनुष्य और पशु में कोई भेद नहीं है। मनुष्य पशु की अवस्था से ही अग्रसर होकर इस अवस्था में आया है। इसलिए वह स्थूल को छोड़कर रह नहीं सकता। यही कारण है कि मनुष्य को दो प्रकार के कर्त्तव्य निभाने पड़ते हैं, एक स्थूल की क्षुधा को निवृत्त करना और दूसरा सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तत्त्व की ओर बढ़ाने वाली अपनी ऊर्ध्वगामिनी वृत्ति को संतुष्ट करना। आहार-निद्रा आदि के साधन भी मनुष्य को जुटाने पड़ते हैं। यद्यपि मनुष्य-बुद्धि ने इनमें भी कमाल का उत्कर्ष दिखाया है, पर प्रयोजन प्रयोजन ही है। प्रयोजन के जो अतीत हैं, जहाँ मनुष्य की अनंदिनी वृत्ति ही चरितार्थ होती है, वहाँ मनुष्य की ऊर्ध्वगामिनी वृत्ति को संतोष होता है। ज्यों-ज्यों मनुष्य-संघबद्ध होकर रहने का अभ्यस्त होता गया, त्यों-त्यों उसे सामाजिक संघटन के लिए नाना प्रकार के नियम-क़ानून बनाने पड़े। इस संघटन को दोषहीन और गतिशील बनाने के लिए उसने दंड-पुरस्कार की व्यवस्था भी की, इन बातों को एक शब्द में सभ्यता कहते हैं। आर्थिक व्यवस्था राजनीतिक संघटन, नैतिक परंपरा और सौंदर्य-बोध को तीव्रतर करने की योजना; ये सभ्यता के चार स्तंभ है। इन सबके सम्मिलित प्रभाव से संस्कृति बनती है। सभ्यता मनुष्य के बाह्य प्रयोजनों को सहजलभ्य करने का विधान है और संस्कृति प्रयोजनातीत आंतर आनंद की अभिव्यक्ति। परंतु शायद फिर मैं पहेलियों की बोली बोलने लगा हूँ। आप जानना चाहेंगे कि यह बाह्य प्रयोजन और आंतर अभिव्यक्ति क्या है? किसको तुम बाह्य कहते हो और किसको आंतर, तुम्हारे कथन में प्रमाण क्या है?
यह जो हमारे बाह्यतंरण हैं—कर्मेंद्रिय और ज्ञानेंद्रिय है—हमारे अत्यंत सूक्ष्म प्रयोजनों के निवर्त्तक है। मन इनमें सूक्ष्म है, बुद्धि और भी सूक्ष्म है। मन में हम हज़ार गज की लंबाई की भी एकाएक धारणा नहीं कर सकते। पर बुद्धि द्वारा ज्योतिषी कोटि-कोटि प्रकाश-वर्षों में हुए ग्रह-नक्षत्रों की नाप-जोख किया करते हैं। परंतु बुद्धि भी बड़ी चीज़ नहीं है। बुद्धि से भी बढ़कर कोई वस्तु है। वही अंतरतम है।
गीता में कहा है—
इन्द्रियाणि पराण्यहुरिद्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुढेः परतस्तु सः॥
जो वस्तु केवल इंद्रियो को संतुष्ट कर सके, वह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। जो वस्तु मन को संतुष्ट कर सके, अर्थात् हमारे भावावेगों को संतोष दे सके, वह पहली से सूक्ष्म होने पर भी बहुत बड़ी नहीं है। जो बात बुद्धि को संतोष दे सके, वह ज़रूर बड़ी है, पर वह भी बाह्य है। बुद्धि से भी परे कुछ है। वही वास्तव है, उसका संतोष ही काम्य है! परंतु वह क्या है? मैं भारतीय मनीषा के इस मंतव्य तक आपको ले आकर यह आशा नहीं कर रहा हूँ कि आप शास्त्र-वाक्य पर विश्वास कर लें। मैं इसके निकट आपको ले आकर छोड़ देता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि यहाँ तक आकर आप इसकी गहराई में बैठने का प्रयत्न अवश्य करेंगे। जब तक इसकी गहराई में बैठने का प्रयत्न नहीं किया जाता, तब तक मनुष्य के बड़े-बड़े प्रयत्नों का रहस्य समझ में नहीं आएगा।
तैत्तिरीय उपनिषद् की भृगुवल्ली में वरुण के पुत्र भृगु की मनोरंजक कथा दी हुई है। भृगु ने जाकर वरुण से कहा था कि भगवन् मैं ब्रह्म को जानना चाहता हूँ। पिता ने तप करने की आज्ञा दी। कठिन तपस्या के बाद पुत्र ने समझा—अन्न ही ब्रह्म है। पिता ने फिर तप करने को कहा। इस बार पुत्र कुछ और गहराई में गया। उसने प्राण को ही बह्म समझा। पिता को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने पुत्र को पुनः तप करने के लिए उत्साहित किया। पुत्र ने फिर तप किया और समझा कि मन ही ब्रह्म है। पिता फिर भी असंतुष्ट ही रहे। फिर तप करने के बाद पुत्र ने अनुभव किया—विज्ञान ही ब्रह्म है। पर पिता को अब भी संतोष नहीं हुआ। पुनर्वार कठिन तप के बाद पुत्र ने समझा—आनंद ही ब्रह्म है। यही चरम सत्य था। इस प्रकार अन्न (भौतिक पदार्थ)—प्राण-मन—विज्ञान—(बुद्धि)—आनंद (अध्यात्म तत्त्व)—ये ही ज्ञान के पाँच स्तर हैं। ये उत्तरोत्तर सूक्ष्म है। इन्हीं पाँचों को आश्रय करके संसार के भिन्न-भिन्न दार्शनिक मत बने हैं। साधारणतः इनको आश्रय करके दो-दो प्रकार के मत बन जाते हैं। तर्काश्रित मत और विश्वास समर्पित मत। संदेह को उद्रिक्त करने वाला तर्काश्रित मत फ़िलासफ़ी का प्रतिपाद्य मत बन गया है और विश्वास को आश्रय करके श्रद्धा को उद्रिक्त करने वाला मत धर्म-विज्ञान का। भारतवर्ष का इतिहास अन्य देशों से कुछ विचित्र रहा है। सभ्यता के उषाकाल से लेकर आधुनिक काल के आरंभ तक हमारे इस देश में नाना मानव-समूहों की धारा बराबर आती रही है। इसमें सभ्य, अर्ध-सभ्य और बर्बर सभी श्रेणी के मनुष्य रहे हैं। भारतीय मनीषी शुरू से ही मनुष्य के बहुविध विश्वासों और मतों को जानने का अवसर पा सके हैं। इसलिए यहाँ धर्म-विज्ञान और तत्त्व-जिज्ञासा कभी परस्पर विरोधी मत नहीं माने गए। भारतीय ऋषि ने दोनों का उचित सामंजस्य किया है। शायद इस विषय में भारतवर्ष सारे संसार को कुछ दे सकता है। भारतवर्ष के दार्शनिक साहित्य के आलोचकों को आश्चर्य हुआ कि इस देश में उस चीज़ का कभी विकास हो ही नहीं हो पाया जिसे फ़िलासफ़ी कहते हैं; भारतवर्ष के दर्शन धर्म पर आधारित बताए गए हैं। 'दर्शन' शब्द का अर्थ ही देखना है। इसका अंतर्निहित अर्थ यह है कि 'दर्शन' कुछ सिद्ध महात्माओं के देखे हुए (साक्षात्कृत) सत्यों का प्रतिपादन करते हैं। जैसा कि हमने अभी लक्ष्य किया है, यह 'देखना' तब वास्तविक होगा जब वह केवल इंद्रिय द्वारा, प्राण द्वारा, मन द्वारा यहाँ तक कि बुद्धि द्वारा भी दृष्ट स्थूल तथ्यों को पीछे छोड़कर उस वस्तु के द्वारा देखा गया हो, जो आनंदरूप है, जो सबके परे और सबसे सूक्ष्म है। यही स्वसंवेद्य ज्ञान है परंतु यह नहीं समझना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति जो कुछ भी अनुभव करता है, वह सत्य ही है। शरीर और मन की शुद्धि आवश्यक है। जब तक मनुष्य का बाहर और भीतर शुद्ध, निर्मल और पवित्र नहीं होते, तब तक वह ग़लत वस्तु को सत्य समझ सकता है। चंचल मन ने कोई मामूली समस्या भी ठीक-ठीक समाहित नहीं होती। यह जो बाह्य और अंतःकरणों की शुद्धि है, यही भारतीय दर्शनों की विशेषता है। जैसे-तैसे सोचकर बड़े सत्य को अनुभव नहीं किया जा सकता। चंचल चित्त केवल विकृत चिंता में ही लगा रहता है। भारतीय मनीषियों ने इस चंचल चित्त को वश में करने के उपाय बताए। उसी उपाय का नाम योग है। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि यद्यपि मन बड़ा चंचल है और उसे वश में करना कठिन है, तथापि अभ्यास और वैराग्य ने उसे वश में किया जा सकता है। अभ्यास और वैराग्य के लिए भारतीय साहित्य में शताधिक ग्रंथ वर्तमान है। संभवतः सारे संसार में बुद्धिजीवी इस विषय में यहाँ से कुछ सीख सकते हैं। केवल बौद्धिक विश्लेषण द्वारा सत्य तक नहीं पहुँचा जा सकता। सर्वत्र अभ्यास और वैराग्य आवश्यक है।
हमने अभी जिन पाँच तत्वों को लक्ष्य किया, उनमें सबसे स्थूल है यह शरीर, फिर प्राण और फिर मन। शरीर का प्रतीक बिंदु है। भारतीय मनीषियों ने अनुभव किया है कि इनमें से किसी एक को संयत करने का अभ्यास लिया जाए तो बाकी संयत हो जाते हैं। भारतवर्ष के नाना आध्यात्मिक पंथ इन तीनों को संयत करने के ऊपर ज़ोर देने के कारण अलग-अलग हो गए है। संयमन की विधि भी सर्वत्र एक नहीं है। नाना बौद्ध और शाक्त साधनाओं में बिंदु को वश में करने की विधियाँ बताई गई हैं, हठयोग प्राण को वश में करने के पक्ष में है, राजयोग मन को वश करने की विधि बताता है। ये सब अभ्यास द्वारा सिद्ध होते हैं। ऊपर-ऊपर से देखने वाले आलोचक भारतीय साधन-मार्गों में इतना अधिक भेद देख सकते हैं कि उन्हें समझ में नहीं आता कि ये विभिन्न पंथ किस प्रकार अपने को एक ही मूल उद्गम से उद्भूत बताते हैं। गहराई में जाने वाले के लिए ये विरोध नगण्य हैं। नाना भाँति अभ्यास के द्वारा साधक बिंदु, प्राण और मन को स्थिर करता है। तब जाकर अंतःकरण राग निर्मल स्फटिक मणि के समान होता है। परंतु यहाँ भी भ्रांति का काश रहता है। इसीलिए भारतीय मनीषियों ने केवल अभ्यास के एकमात्र साधन नहीं माना। अभ्यास के साथ वैराग्य होना चाहिए राग-द्वेष-वश जो इंद्रिय चांचल्य होता है, उसको रोकना, विराग के विषयों को अलग-अलग समझ सकना, मन द्वारा विषयों की चिंता और अंत में मानसिक उत्सुकता को दबा देना ये सब वैराग भेद हैं, परंतु असली वैराग्य तो तब होता है जब अंतरात्मा से इंद्रियों से और मन-बुद्धि आदि सब तत्त्वों से अपने को पृथक् लेता है। इस प्रकार अभ्यास और वैराग्य से चित्त स्थिर होता है बुद्धि निर्मल होती है—केवल उसी समय परम सत्य का साक्षातर होता है।
मेरा अनुमान है कि विचार का यह प्रकृष्ट पंथ है, परंतु यह दावा नहीं है कि मैं इस बात को ठीक-ठीक समझ सकता हूँ। वे यह साधन का विषय है, परंतु यह समझना कठिन नहीं कि किसी की सचाई तक पहुँचने के लिए एक प्रकार के बौद्धिक वैराग्य की आवश्यकता है। संसार की समस्त जटिल समस्याएँ नित्य-प्रति और जटिल इसलिए होती जाती है कि इन पर विचार करने वालों में मानसिक और बौद्धिक वैराग्य का अभाव है! लोग अपने-अपने विशेष से और विचार-पद्धतियों के भीतर से दूसरों को देखने का प्रयास कर और समस्याएँ और भी जटिलतर हो जाती है। बौद्धिक वैराग्य ही म को संस्कृत बनाता है।
भारतवर्ष का साहित्य बड़ा विशाल और विपुल है। उसने ज्ञान साधना के क्षेत्र में नाना भाव से विचार किया है। मैं सबकी चर्चा योग्य अधिकारी भी नहीं हूँ और यहाँ इतना समय भी नहीं है; पर इतना स्मरण कर लेना उचित है कि यह जो आध्यात्मिक परम-सत्य की उपलब्धि है और जिसके लिए शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक और वैराग्य की बात बताई गई है—सिर्फ़ यही एकमात्र काम्य बताया गया। यद्यपि यह परमोत्तम लक्ष्य है, पर इस लक्ष्य की पूर्ति के पहले प्रत्येक व्यक्ति को कुछ ऋण चुका लेने पड़ते है। बहुत थोड़े को इन ऋणों से छुटकारा दिया गया। अधिकांश लोग इन ऋणों को चुकाए बिना किसी भी बड़ी साधना के अधिकारी नहीं हो सकते।
भारतीय विश्वास के अनुसार मनुष्य तीन प्रकार के ऋणों को लेकर पैदा होता है। ये तीन ऋण है— देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण। पैदा होते ही मनुष्य अपने संपूर्ण शरीर और इंद्रयों को पा जाता है। ये इंद्रियाँ उसे न मिलती तो न तो वह संसार का कुछ आनंद ही उपयोग कर सकता, न कृत नया दे ही सकता। निश्चय ही वह माता-पिता के निकट इसके लिए ऋणी है। परंतु वस्तुतः वह अनादिकालीन धारा का परिणाम पितृ-पितामहो ने उसे जो शरीर दिया है, उसका क्या कोई प्रतिदान दे सकता है? भारतीय मनीषियों ने उसका एकमात्र उपाय यह बताया है कि मनुष्य इसे ऋण के रूप में स्वीकार कर ले और पितृ-पितामहो की इस धारा को आगे बढ़ा दे। धारा रुद्ध न होने पावे। कौन जानता है, भविष्य में उसी धारा में कौन कृति बालक पैदा होकर संसार को नई रोशनी दे? इसीलिए शास्त्रकारों में पितृऋण से मुक्ति पाने का उपाय संतान उत्पन्न करना और उन्हें शिक्षित बनाकर समाज के हाथों सौंप जाने को बताया है। फिर मनुष्य पैदा होते ही अनेक विद्वानों और विज्ञानियों की आविष्कृत ज्ञानराशि को सहज ही पा जाता है। हर व्यक्ति को नए सिरे से अगर अपना-अपना प्रयोग और आविष्कार चलाना पड़ता तो मनुष्य की यह दुनिया कैसी बन गई होती, यह केवल सोचने की बात है। सो मनुष्य इस प्रकार अतीत के ऋषियों का ऋण लिए हुए पैदा होता है। इसे चुकाने का उपाय ज्ञान की धारा की रक्षा और उसे अग्रसर कर देना है। विद्या पढ़ना और ज्ञानधारा को अग्रसर करना कोई कृतित्व नहीं, सिर्फ़ कर्ज़ा चुकाने का कर्तव्य-पालन-मात्र है। फिर अन्न को पैदा करने वाली पृथ्वी, जल बरसाने वाले मेघ, प्रकाश देने वाला सूर्य आदि प्राकृतिक शक्तियाँ जिन्हें भारतीय मनीषी 'देवता' कहता है—हमें अनायास मिल गई है। भारतीय मनीषी ने इनके ऋण से मुक्ति पाने का उपाय बाँटकर भोग करना बताया है। जो तुम्हारे पास है, सबको बाँटकर ग्रहण करो। सो ये तीन ऋण मनुष्य के जन्म से ही लदे आते हैं। इन तीन ऋणों को चुकाए बिना मोक्ष पाने का प्रयत्न पाप है। भारतवर्ष में प्रत्येक व्यक्ति से यह कम-से-कम आशा की गई है कि वह समाज को स्वस्थ और शिक्षित संतान दे, प्राचीन ज्ञान-परंपरा की रक्षा करे और उसे आगे बढ़ाने का प्रयत्न करे और प्राकृतिक शक्तियों से प्राप्त संपदा को निजी समझकर दबा न रखे। ये ऋण हैं। मनुस्मृति के छठवें अध्याय में कहा गया है कि जो इनको चुकाए बिना ही मोक्ष की कामना करता है, वह अतःपतित होता है :
ऋणानि श्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत्।
अनपाकृत्य मोक्षन्तु सेवमानो ब्रजत्यधः।
जब तक ये ऋण चुका नहीं दिए जाते, तब तक मनुष्य को बड़ी बात सोचने का अधिकार नहीं है।
भारतवर्ष ने एशिया और यूरोप के देशों को अपनी धर्म-साधना की उत्तम वस्तुएँ दान दी है। उसने अहिंसा और मैत्री का संदेश दिया है, क्षुद्र दुनियावी स्वार्थों की उपेक्षा करके विशाल आध्यात्मिक अनुभूतियों का उपदेश दिया है और उससे जिन बातों को ग्रहण किया है, वे भी उसी प्रकार महान और दीर्घस्थाई रही है। उच्चतर क्षेत्र के आदान-प्रदान के ठोस चिह्न अब भी इस भूमि के नीचे से निकलते रहते हैं और विदेशों में मिल जाया करते हैं। हमारा धर्म, विज्ञान, हमारा मूर्ति और मंदिर-शिल्प; हमारा दर्शन-शास्त्र, हमारे काव्य और नाटक, हमारी चिकित्सा और ज्योतिष संसार में गए हैं; सम्मानित और स्वीकृत हुए हैं और संसार की उच्च चिंतनशील जातियों से थोड़ा-बहुत प्रवाहित भी हुए हैं। मैं आज आपको उस दिव्य लोक की सैर नहीं करा सका, जहाँ भारतीय आचार्य पर्वतों और रेगिस्तानों को लाँघकर अहिंसा और मैत्री का संदेश देते हैं, जहाँ हमारे शिल्पी गांधार और यवन कलाकारों के साथ मिलकर पत्थर में जान डाल रहे हैं, जहाँ अरब और ईरान के मनीषियों के साथ मिलकर वे चिकित्सा और ज्योतिष का प्रचार कर रहे हैं, जहाँ मलय और यवद्वीप में वहाँ के निवासियों से मिलकर शिल्प और कला में नया प्राण-संचार कर रहे हैं। मैं उस परम मोहक लोक में आपको न ले जाकर शास्त्रीय नीरस विचारों में उलझाए रहा, परंतु इसके लिए मुझे क्षमा मांगने की ज़रूरत नहीं है, मेरा विश्वास है कि भारतीय मनीषियों ने अपने देशवासियों में जीवन के आवश्यक कर्तव्य और वैराग्य की महिमा और स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म की ओर झुकने का प्रेम पैदा किया, उसका ही परिणाम है कि भारतवर्ष दीर्घकाल तक पशु-सुलभ स्वार्थों का ग़ुलाम नहीं बन सका। आज हम सांस्कृतिक दृष्टि से जो बहुत नीचे गिर गए हैं, उसका प्रधान कारण यही है कि हम इस महान् आदमी को भूल गए हैं। मेरा विश्वास है कि इन आदर्शों को नई परिस्थितियों के अनुकूल बनाकर ग्रहण करने से हम तो ऊपर उठेंगे ही, सारे संसार को भी उनमें कुछ-न-कुछ ऐसा अवश्य मिलेगा जिससे उसे वर्तमान प्रलयकर अवस्था से उबरने का मौका मिले।
भारतवर्ष ने सामान्य मानवीय संस्कृति को पूर्ण और व्यापक बनाने की जो महती साधना की है, उसके प्रत्येक पहलू का अध्ययन और प्रकाशन हमारा अत्यंत महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य होना चाहिए।
- पुस्तक : निबंधमाला (पृष्ठ 112)
- संपादक : लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय
- रचनाकार : हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद
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