प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
एक बार की बात कहता हूँ। मित्र बाज़ार गए तो थे कोई एक मामूली चीज़ लेने, पर लौटे तो एकदम बहुत-से बंडल पास थे।
मैंने कहा—यह क्या?
बोले—यह जो साथ थीं।
उनका आशय था कि यह पत्नी की महिमा है। उस महिमा का मैं क़ायल हूँ। आदिकाल से इस विषय में पति से पत्नी की ही प्रमुखता प्रमाणित है। और यह व्यक्तित्व का प्रश्न नहीं, स्त्रीत्व का प्रश्न है। स्त्री माया न जोड़े, तो क्या मैं जोड़ूँ? फिर भी सब सच है और वह यह कि इस बात में पत्नी की ओट ली जाती है। मूल में एक और तत्व की महिमा सविशेष है। वह तत्त्व है मनीबैग, अर्थात पैसे की गरमी या एनर्जी।
पैसा पावर है। पर उसके सबूत में आस-पास माल-टाल न जमा हो तो क्या वह ख़ाक पावर है! पैसे को देखने के लिए बैंक-हिसाब देखिए, पर माल-असबाब मकान-कोठी तो अनदेखे भी दीखते हैं। पैसे की उस ‘पर्चेज़िंग पावर' के प्रयोग में ही पावर का रस है।
लेकिन नहीं। लोग संयमी भी होते हैं वे फ़िज़ूल सामान को फ़िज़ूल समझते हैं। वे पैसा बहाते नहीं हैं और बुद्धिमान होते हैं। बुद्धि और संयमपूर्वक वह पैसे को जोड़ते जाते हैं, जोड़ते जाते हैं। वह पैसे की पावर को इतना निश्चय समझते हैं कि उसके प्रयोग की परीक्षा उन्हें दरकार नहीं है। बस ख़ुद पैसे के जुड़ा होने पर उनका मन गर्व से भरा फूला रहता है।
मैंने कहा—यह कितना सामान ले आए!
मित्र ने सामने मनीबैग फैला दिया, कहा—यह देखिए। सब उड़ गया, अब जो रेल-टिकट के लिए भी बचा हो!
मैंने तब तय माना कि और पैसा होता और सामान आता। वह सामान ज़रूरत की तरफ़ देखकर नहीं आया अपनी 'पर्चेज़िंग पावर' के अनुपात में आया है।
लेकिन ठहरिए। इस सिलसिले में एक और भी महत्त्व का तत्त्व है, जिसे नहीं भूलना चाहिए। उसका भी इस करतब में बहुत-कुछ हाथ है। वह महत्त्व है, बाज़ार।
मैंने कहा—यह इतना कुछ नाहक़ ले आए!
मित्र बोले—कुछ न पूछो। बाज़ार है कि शैतान का जाल है? ऐसा सजा-सजाकर माल रखते हैं कि बेहया ही हो जो न फँसे।
मैंने मन में कहा, ठीक। बाज़ार आमंत्रित करता है कि आओ मुझे लूटो और लूटो। सब भूल जाओ, मुझे देखो। मेरा रूप और किसके लिए है? मैं तुम्हारे लिए हूँ। नहीं कुछ चाहते हो, तो भी देखने में क्या हरज़ है। अजी आओ भी। इस आमंत्रण में यह ख़ूबी है कि आग्रह नहीं है आग्रह तिरस्कार जगाता है। लेकिन ऊँचे बाज़ार का आमंत्रण मूक होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब अभाव। चौक बाज़ार में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास काफ़ी नहीं है और चाहिए, और चाहिए। मेरे यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितना अतुलित है ओह!
कोई अपने को न जाने तो बाज़ार का यह चौक उसे कामना से विकल बना छोड़े। विकल क्यों, पागल। असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर मनुष्य को सदा के लिए यह बेकार बना डाल सकता है।
एक और मित्र की बात है। यह दुपहर के पहले के गए-गए बाज़ार से कहीं शाम को वापिस आए। आए तो ख़ाली हाथ!
मैंने पूछा—कहाँ रहें?
बोले—बाज़ार देखते रहे।
मैंने कहा—बाज़ार को देखते क्या रहे?
बोले—क्यों? बाज़ार!
तब मैंने कहा—लाए तो कुछ नहीं!
बोले—हाँ पर यह समझ न आता था कि न लूँ तो क्या? सभी कुछ तो लेने को जी होता था। कुछ लेने का मतलब था शेष सब-कुछ को छोड़ देना। पर मैं कुछ भी नहीं छोड़ना चाहता था। इससे मैं कुछ भी नहीं ले सका।
मैंने कहा—ख़ूब!
पर मित्र की बात ठीक थी। अगर ठीक पता नहीं है कि क्या चाहते हो तो सब ओर की चाह तुम्हें घेर लेगी। और तब परिणाम त्रास ही होगा, गति नहीं होगी, न कर्म।
बाज़ार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है पर जैसे चुंबक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो, और मन ख़ाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर ख़ूब होता है। जेब ख़ाली पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन ख़ाली है तो बाज़ार की अनेकानेक चींज़ों का निमंत्रण उस तक पहुँच जाएगा। कहीं हुई उस वक़्त जेब भरी तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है! मालूम होता है यह भी लूँ, वह भी लूँ। सभी सामान ज़रूरी और आराम को बढ़ाने वाला मालूम होता है। पर यह सब जादू का असर है। जादू की सवारी उतरी कि पता चलता है कि फ़ैंसी चींज़ों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देतीं, बल्कि ख़लल ही डालती है। थोड़ी देर को स्वाभिमान को ज़रूर सेंक मिल जाता है पर इससे अभिमान की गिल्टी की और ख़ुराक ही मिलती है। जकड़ रेशमी डोरी की हो तो रेशम के स्पर्श के मुलायम के कारण क्या वह कम जकड़ होगी?
पर उस जादू की जकड़ से बचने का एक सीधा-सा उपाय है। वह यह कि बाज़ार जाओ तो ख़ाली मन न हो। मन ख़ाली हो, तब बाज़ार न जाओ। कहते हैं लू में जाना हो तो पानी पीकर जाना चाहिए। पानी भीतर हो, लू का लू-पन व्यर्थ हो जाता है। मन लक्ष्य में भरा हो तो बाज़ार भी फैला-का-फैला ही रह जाएगा। तब वह घाव बिलकुल नहीं दे सकेगा, बल्कि कुछ आनंद ही देगा। तब बाज़ार तुमसे कृतार्थ होगा, क्योंकि तुम कुछ-न-कुछ सच्चा लाभ उसे दोगे। बाज़ार की असली कृतार्थता है आवश्यकता के समय काम आना।
यहाँ एक अंतर चीन्ह लेना बहुत ज़रूरी है। मन ख़ाली नहीं रहना चाहिए, इसका मतलब यह नहीं है कि वह मन बंद रहना चाहिए। जो बंद हो जाएगा, वह शून्य हो जाएगा। शून्य होने का अधिकार बस परमात्मा का है जो सनातन भाव से संपूर्ण है। शेष सब अपूर्ण है। इससे मन बंद नहीं रह सकता। सब इच्छाओं का निरोध कर लोगे, यह झूठ है और अगर 'इच्छानिरोधस्तप:' का ऐसा ही नकारात्मक अर्थ हो तो यह तप झूठ है। जैसे तप की राह रेगिस्तान को जाती होगी, मोक्ष की राह वह नहीं है। ठाठ देकर मन को बंद कर रखना जड़ता है। लोभ का यह जीतना नहीं है कि जहाँ लोभ होता है, यानी मन में, वहाँ नकार हो! यह तो लोभ की ही जीत है और आदमी की हार। आँख अपनी फोड़ डाली, तब लोभनीय के दर्शन से बचे तो क्या हुआ? ऐसे क्या लोभ मिट जाएगा? और कौन कहता है कि आँख फूटने पर रूप दीखना बंद हो जाएगा? क्या आँख बंद करके ही हम सपने नहीं लेते हैं? और वे सपने क्या चैन-भंग नहीं करते हैं? इससे मन को बंद कर डालने की कोशिश तो अच्छी नहीं। वह अकारथ है यह तो हठवाला योग है। शायद हठ-ही-हठ है, योग नहीं है। इससे मन कृश भले हो जाए और पीला और अशक्त जैसे विद्वान का ज्ञान। वह मुक्त ऐसे नहीं होता। इससे वह व्यापक की जगह संकीर्ण और विराट की जगह क्षुद्र होता है। इसलिए उसका रोम-रोम मूँदकर बंद तो मन को करना नहीं चाहिए। वह मन पूर्ण कब है? हम में पूर्णता होती तो परमात्मा से अभिन्न हम महाशून्य ही न होते? अपूर्ण हैं, इसी से हम हैं। सच्चा ज्ञान सदा इसी अपूर्णता के बोध को हम में गहरा करता है। सच्चा कर्म सदा इस अपूर्णता की स्वीकृति के साथ होता है। अतः उपाय कोई वही हो सकता है जो बलात् मन को रोकने को न कहे, जो मन को भी इसलिए सुने क्योंकि वह अप्रयोजनीय रूप में हमें नहीं प्राप्त हुआ है। हाँ, मनमानेपन की छूट मन को न हो, क्योंकि वह अखिल का अंग है, ख़ुद कुल नहीं है।
पड़ोस में एक महानुभाव रहते हैं जिनको लोग भगत जी कहते हैं। चूरन बेचते हैं। यह काम करते, जाने उन्हें कितने बरस हो गए हैं। लेकिन किसी एक भी दिन चूरन से उन्होंने छः आने पैसे से ज़्यादा नहीं कमाए। चूरन उनका आस-पास सरनाम है। और ख़ुद ख़ूब लोकप्रिय हैं। कहीं व्यवसाय का गुर पकड़ लेते और उस पर चलते तो आज ख़ुशहाल क्या मालामाल होते! क्या कुछ उनके पास न होता! इधर दस वर्षों से मैं देख रहा हूँ, उनका चूरन हाथों-हाथ बिक जाता है। पर वह न उसे थोक देते हैं, न व्यापारियों को बेचते हैं। पेशगी आर्डर कोई नहीं लेते। बँधे वक़्त पर अपनी चूरन की पेटी लेकर घर से बाहर हुए नहीं कि देखते-देखते छह आने की कमाई उनकी हो जाती है। लोग उनका चूरन लेने को उत्सुक जो रहते हैं। चूरन से भी अधिक शायद वह भगत जी के प्रति अपनी सद्भावना का देय देने को उत्सुक रहते हैं। पर छह आने पूरे हुए नहीं कि भगत जी बाक़ी चूरन बालकों को मुफ़्त बाँट देते हैं। कभी ऐसा नहीं हुआ है कि कोई उन्हें पच्चीसवाँ पैसा भी दे सके। कभी चूरन में लापरवाही नहीं हुई है, और कभी रोग होता भी मैंने उन्हें नहीं देखा है।
और तो नहीं, लेकिन इतना मुझे निश्चय मालूम होता है कि इन चूरनवाले भगत जी पर बाज़ार का जादू नहीं चल सकता।
कहीं आप भूल न कर बैठिएगा। इन पंक्तियों को लिखने वाला मैं चूरन नहीं बेचता हूँ। जी नहीं, ऐसी हलकी बात भी न सोचिएगा। यह समझिएगा कि लेख के किसी भी मान्य पाठक से उस चूरनवाले को श्रेष्ठ बताने की मैं हिम्मत कर सकता हूँ। क्या जाने उस भोले आदमी को अक्षर-ज्ञान तक भी है या नहीं। और बड़ी बातें तो उसे मालूम क्या होंगी। और हम-आप न जाने कितनी बड़ी-बड़ी बातें जानते हैं। इससे यह तो हो सकता है कि वह चूरनवाला भगत हम लोगों के सामने एकदम नाचीज़ आदमी हो। लेकिन आप पाठकों की विद्वान् श्रेणी का सदस्य होकर भी मैं यह स्वीकार नहीं करना चाहता हूँ कि उस अपदार्थ प्राणी को वह प्राप्त है जो हम में से बहुत कम को शायद प्राप्त है। उस पर बाज़ार का जादू वार नहीं कर पाता। माल बिछा रहता है, और उसका मन अडिग रहता है। पैसा उससे आगे होकर भीख तक माँगता है कि मुझे लो। लेकिन उसके मन में पैसे पर दया नहीं समाती। वह निर्मम व्यक्ति पैसे को अपने आहत गर्व में बिलखता ही छोड़ देता है। ऐसे आदमी के आगे क्या पैसे की व्यंग्य-शक्ति कुछ भी चलती होगी? क्या वह शक्ति कुंठित रहकर सलज्ज ही न हो जाती होगी?
पैसे की व्यंग्य-शक्ति की सुनिए। वह दारुण है। मैं पैदल चल रहा हूँ कि पास ही धूल उड़ाती निकल गई मोटर। वह क्या निकली मेरे कलेजे को कौंधती एक कठिन व्यंग्य की लीक ही आर-से-पार हो गई। जैसे किसी ने आँखों में उँगली देकर दिखा दिया हो कि देखो, उसका नाम है मोटर, और तुम उससे वंचित हो! यह मुझे अपनी ऐसी विडंबना मालूम होती है कि बस पूछिए नहीं। मैं सोचने को हो आता हूँ कि हाय, ये ही माँ-बाप रह गए थे जिनके यहाँ मैं जन्म लेने को था! क्यों न मैं मोटरवालों के यहाँ हुआ! उस व्यंग्य में इतनी शक्ति है कि ज़रा में मुझे अपने सगों के प्रति कृतघ्न कर सकती है।
लेकिन क्या लोकवैभव की यह व्यंग्य-शक्ति उस चूरनवाले अकिंचित्कर मनुष्य के आगे चूर-चूर होकर ही नहीं रह जाती? चूर-चूर क्यों, कहो पानी-पानी।
तो वह क्या बल है जो इस तीखे व्यंग्य के आगे ही अजेय ही नहीं रहता, बल्कि मानो उस व्यंग्य की क्रूरता को ही पिघला देता है?
उस बल को नाम जो दो; पर वह निश्चय उस तल की वस्तु नहीं है जहाँ पर संसारी वैभव फलता-फूलता है। वह कुछ अपर जाति का तत्त्व है। लोग स्पिरिचुअल कहते हैं; आत्मिक, धार्मिक, नैतिक कहते हैं। मुझे योग्यता नहीं कि मैं उन शब्दों में अंतर देखूँ और प्रतिपादन करूँ। मुझे शब्द से सरोकार नहीं। मैं विद्वान नहीं कि शब्दों पर अटकूँ। लेकिन इतना तो है कि जहाँ तृष्णा है, बटोर रखने की स्पृहा है, वहाँ उस बल का बीज नहीं है। बल्कि यदि उसी बल को सच्चा बल मानकर बात की जाए तो कहना होगा कि संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती है। निर्बल ही धन की ओर झुकता है। यह अबलता है। यह मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़ की विजय है।
एक बार चूरनवाले भगत जी बाज़ार चौक में दीख गए। मुझे देखते ही उन्होंने जय-जयराम किया। मैने भी जयराम कहा। उनकी आँखें बंद नहीं थीं और न उस समय यह बाज़ार को किसी भाँति कोस रहे मालूम होते थे। राह में बहुत लोग, बहुत बालक मिले जो भगत जी द्वारा पहचाने जाने के इच्छुक थे। भगत जी ने सबको ही हँसकर पहचाना। सबका अभिवादन लिया और सबको अभिवादन किया। इससे तनिक भी यह नहीं कहा जा सकेगा कि चौक-बाज़ार में होकर उनकी आँखें किसी से भी कम खुली थीं। लेकिन भौंचक्के हो रहने की लाचारी उन्हें नहीं थी। व्यवहार में पसोपेश उन्हें नहीं था और खोए-से खड़े नहीं वह रह जाते थे। भाँति-भाँति के बढ़िया माल से चौक भरा पड़ा है। उस सबके प्रति अप्रीति इस भगत के मन में नहीं है। जैसे उस समूचे माल के प्रति भी उनके मन में आशीर्वाद हो सकता है। विद्रोह नहीं, प्रसन्नता ही भीतर है, क्योंकि कोई रिक्त भीतर नहीं है। देखता हूँ कि खुली आँख तुष्ट और मग्न, वह चौक-बाज़ार में से चलते चले जाते हैं। राह में बड़े-बड़े फ़ैंसी स्टोर पड़ते हैं, पर पड़े रह जाते हैं। कहीं भगत नहीं रुकते। रुकते हैं तो एक छोटी पंसारी की दुकान पर रुकते हैं। वहाँ दो-चार अपने काम की चीज़ लीं और चले आते हैं। बाज़ार से हठपूर्वक विमुखता उनमें नहीं है; लेकिन अगर उन्हें ज़ीरा और काला नमक चाहिए तो सारे चौक-बाज़ार की सत्ता उनके लिए तभी तक है, तभी तक उपयोगी है, जब तक वहाँ ज़ीरा मिलता है। ज़रूरत-भर ज़ीरा वहाँ से ले लिया कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है। वह जानते हैं कि जो उन्हें चाहिए वह है ज़ीरा नमक। बस इस निश्चित प्रतीति के बल पर शेष सब चाँदनी चौक का आमंत्रण उन पर व्यर्थ होकर बिखरा रहता है। चौक की चाँदनी दाएँ-बाएँ भूखी-की-भूखी फैली रह जाती है; क्योंकि भगत जी को ज़ीरा चाहिए वह तो कोनेवाली पंसारी की दुकान से मिल जाता है और वहाँ से सहज भाव में ले लिया गया है। इसके आगे आस-पास अगर चाँदनी बिछी रहती है तो बड़ी ख़ुशी से बिछी रहे, भगत जी से बेचारी का कल्याण ही चाहते हैं।
यहाँ मुझे ज्ञात होता है कि बाज़ार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह क्या चाहता है और जो नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं, अपनी 'पर्चेज़िंग पावर' के गर्व में अपने पैसे से केवल एक विनाशक शक्ति—शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति ही बाज़ार को देते हैं। न तो वे बाज़ार से लाभ उठा सकते हैं, न उस बाज़ार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाज़ार का बाज़ारूपन बढ़ाते हैं। जिसका मतलब है कि कपट बढ़ाते हैं। कपट की बढ़ती का अर्थ परस्पर में सद्भाव की घटी। इस सद्भाव के ह्रास पर आदमी आपस में भाई-भाई और सुहृद और पड़ोसी फिर रह ही नहीं जाते हैं और आपस में कोरे गाहक और बेचक की तरह व्यवहार करते हैं। मानो दोनों एक-दूसरे को ठगने की घात में हों। एक की हानि में दूसरे का अपना लाभ दीखता है और यह बाज़ार का, बल्कि इतिहास का; सत्य माना जाता है ऐसे बाज़ार को बीच में लेकर लोगों में आवश्यकताओं का आदान-प्रदान नहीं होता; बल्कि शोषण होने लगता है तब कपट सफल होता है, निष्कपट शिकार होता है। ऐसे बाज़ार मानवता के लिए विडंबना है और जो ऐसे बाज़ार का पोषण करता है, जो उसका शास्त्र बना हुआ है; वह अर्थशास्त्र सरासर औंधा है वह मायावी शास्त्र है वह अर्थशास्त्र अनीति-शास्त्र है।
ek baar ki baat kahta hoon. mitr bazar ge to the koi ek mamuli cheez lene par laute to ekdam bahut se banDal paas the.
mainne kaha—yah kyaa?
bole—yah jo saath theen.
unka ashay tha ki ye patni ki mahima hai. us mahima ka main qayal hoon. adikal se is vishay mein pati se patni ki hi pramukhta prmanit hai. aur ye vyaktitv ka parashn nahin, streetv ka parashn hai. stri maya na joDe, to kya main joDen? phir bhi sab sach hai aur wo ye ki is baat mein patni ki ot li jati hai. mool mein ek aur tatv ki mahima savishesh hai. wo tattv hai manibaig, arthat paise ki garmi ya enarji.
paisa pavar hai. par uske sabut mein aas paas maal taal na jama ho to kya wo khaak pavar hai! paise ko dekhne ke liye baink hisab dekhiye, par maal asbab makan kothi to andekhe bhi dikhte hain. paise ki us ‘parchezing pavar ke prayog mein hi pavar ka ras hai.
lekin nahin. log sanymi bhi hote hain ve fizul saman ko fizul samajhte hain. ve paisa bahate nahin hain aur buddhiman hote hain. buddhi aur sanyampurvak wo paise ko joDte jate hain, joDte jate hain. wo paise ki pavar ko itna nishchay samajhte hain ki uske prayog ki pariksha unhen darkar nahin hai. bas khud paise ke juDa hone par unka man garv se bhara phula rahta hai.
mainne kaha—yah kitna saman le aaye!
mitr ne samne manibaig phaila diya, kaha—yah dekhiye. sab uD gaya, ab jo rel tikat ke liye bhi bacha ho!
mainne tab tay mana ki aur paisa hota aur saman aata. wo saman zarurat ki taraf dekhkar nahin aaya apni parchezing pavar ke anupat mein aaya hai.
lekin thahariye. is silsile mein ek aur bhi mahattv ka tattv hai, jise nahin bhulna chahiye. uska bhi is kartab mein bahut kuch haath hai. wo mahattv hai, bazar.
mainne kaha—yah itna kuch nahaq le aaye!
mitr bole—kuchh na puchho. bazar hai ki shaitan ka jaal hai? aisa saja sajakar maal rakhte hain ki behaya hi ho jo na phanse.
mainne man mein kaha, theek. bazar amantrit karta hai ki aao mujhe luto aur luto. sab bhool jao, mujhe dekho. mera roop aur kiske liye hai? main tumhare liye hoon. nahin kuch chahte ho, to bhi dekhne mein kya haraz hai. aji aao bhi. is amantran mein ye khubi hai ki agrah nahin hai agrah tiraskar jagata hai. lekin uunche bazar ka amantran mook hota hai aur usse chaah jagti hai. chaah matlab abhav. chauk bazar mein khaDe hokar adami ko lagne lagta hai ki uske apne paas kafi nahin hai aur chahiye, aur chahiye. mere yahan kitna parimit hai aur yahan kitna atulit hai oh!
koi apne ko na jane to bazar ka ye chauk use kamna se vikal bana chhoDe. vikal kyon, pagal. asantosh, trishna aur iirshya se ghayal kar manushya ko sada ke liye ye bekar bana Daal sakta hai.
ek aur mitr ki baat hai. ye duphar ke pahle ke ge ge bazar se kahin shaam ko vapis aaye. aaye to khali haath!
mainne puchha—kahan rahen?
bole—bazar dekhte rahe.
mainne kaha—bazar ko dekhte kya rahe?
bole—kyon? bazar!
tab mainne kaha—laye to kuch nahin!
bole—han par ye samajh na aata tha ki na loon to kyaa? sabhi kuch to lene ko ji hota tha. kuch lene ka matlab tha shesh sab kuch ko chhoD dena. par main kuch bhi nahin chhoDna chahta tha. isse main kuch bhi nahin le saka.
mainne kaha—khub!
par mitr ki baat theek thi. agar theek pata nahin hai ki kya chahte ho to sab or ki chaah tumhein gher legi. aur tab parinam traas hi hoga, gati nahin hogi, na karm.
bazar mein ek jadu hai. wo jadu ankh ki raah kaam karta hai. wo roop ka jadu hai par jaise chumbak ka jadu lohe par hi chalta hai, vaise hi is jadu ki bhi maryada hai. jeb bhari ho, aur man khali ho, aisi haalat mein jadu ka asar khoob hota hai. jeb khali par man bhara na ho, to bhi jadu chal jayega. man khali hai to bazar ki anekanek chinzon ka nimantran us tak pahunch jayega. kahin hui us vaqt jeb bhari tab to phir wo man kiski manne vala hai! malum hota hai ye bhi loon, wo bhi loon. sabhi saman zaruri aur aram ko baDhane vala malum hota hai. par ye sab jadu ka asar hai. jadu ki savari utri ki pata chalta hai ki fainsi chinzon ki bahutayat aram mein madad nahin detin, balki khalal hi Dalti hai. thoDi der ko svabhiman ko zarur senk mil jata hai par isse abhiman ki gilti ki aur khurak hi milti hai. jakaD reshmi Dori ki ho to resham ke sparsh ke mulayam ke karan kya wo kam jakaD hogi?
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yahan ek antar cheenh lena bahut zaruri hai. man khali nahin rahna chahiye, iska matlab ye nahin hai ki wo man band rahna chahiye. jo band ho jayega, wo shunya ho jayega. shunya hone ka adhikar bas parmatma ka hai jo sanatan bhaav se sampurn hai. shesh sab apurn hai. isse man band nahin rah sakta. sab ichchhaon ka nirodh kar loge, ye jhooth hai aur agar ichchhanirodhastpah ka aisa hi nakaratmak arth ho to ye tap jhooth hai. jaise tap ki raah registan ko jati hogi, moksh ki raah wo nahin hai. thaath dekar man ko band kar rakhna jaDta hai. lobh ka ye jitna nahin hai ki jahan lobh hota hai, yani man mein, vahan nakar ho! ye to lobh ki hi jeet hai aur adami ki haar. ankh apni phoD Dali, tab lobhaniy ke darshan se bache to kya hua? aise kya lobh mit jayega? aur kaun kahta hai ki ankh phutne par roop dikhana band ho jayega? kya ankh band karke hi hum sapne nahin lete hain? aur ve sapne kya chain bhang nahin karte hain? isse man ko band kar Dalne ki koshish to achchhi nahin. wo akarath hai ye to hathvala yog hai. shayad hath hi hath hai, yog nahin hai. isse man krish bhale ho jaye aur pila aur ashakt jaise vidvan ka gyaan. wo mukt aise nahin hota. isse wo vyapak ki jagah sankirn aur virat ki jagah kshudr hota hai. isliye uska rom rom mundakar band to man ko karna nahin chahiye. wo man poorn kab hai? hum mein purnta hoti to parmatma se abhinn hum mahashunya hi na hote? apurn hain, isi se hum hain. sachcha gyaan sada isi apurnta ke bodh ko hum mein gahra karta hai. sachcha karm sada is apurnta ki svikriti ke saath hota hai. atः upaay koi vahi ho sakta hai jo balat man ko rokne ko na kahe, jo man ko bhi isliye sune kyonki wo apryojniy roop mein hamein nahin praapt hua hai. haan, manmanepan ki chhoot man ko na ho, kyonki wo akhil ka ang hai, khud kul nahin hai.
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aur to nahin, lekin itna mujhe nishchay malum hota hai ki in churanvale bhagat ji par bazar ka jadu nahin chal sakta.
kahin aap bhool na kar baithiyega. in panktiyon ko likhne vala main churan nahin bechta hoon. ji nahin, aisi halki baat bhi na sochiyega. ye samajhiyega ki lekh ke kisi bhi manya pathak se us churanvale ko shreshth batane ki main himmat kar sakta hoon. kya jane us bhole adami ko akshar gyaan tak bhi hai ya nahin. aur baDi baten to use malum kya hongi. aur hum aap na jane kitni baDi baDi baten jante hain. isse ye to ho sakta hai ki wo churanvala bhagat hum logon ke samne ekdam nachiz adami ho. lekin aap pathkon ki vidvan shreni ka sadasya hokar bhi main ye svikar nahin karna chahta hoon ki us apdarth prani ko wo praapt hai jo hum mein se bahut kam ko shayad praapt hai. us par bazar ka jadu vaar nahin kar pata. maal bichha rahta hai, aur uska man aDig rahta hai. paisa usse aage hokar bheekh tak mangta hai ki mujhe lo. lekin uske man mein paise par daya nahin samati. wo nirmam vyakti paise ko apne aahat garv mein bilakhta hi chhoD deta hai. aise adami ke aage kya paise ki vyangya shakti kuch bhi chalti hogi? kya wo shakti kunthit rahkar salajj hi na ho jati hogi?
paise ki vyangya shakti ki suniye. wo darun hai. main paidal chal raha hoon ki paas hi dhool uDati nikal gai motar. wo kya nikli mere kaleje ko kaundhti ek kathin vyangya ki leek hi aar se paar ho gai. jaise kisi ne ankhon mein ungli dekar dikha diya ho ki dekho, uska naam hai motar, aur tum usse vanchit ho! ye mujhe apni aisi viDambna malum hoti hai ki bas puchhiye nahin. main sochne ko ho aata hoon ki haay, ye hi maan baap rah ge the jinke yahan main janm lene ko tha! kyon na main motarvalon ke yahan hua! us vyangya mein itni shakti hai ki zara mein mujhe apne sagon ke prati kritaghn kar sakti hai.
lekin kya lokavaibhav ki ye vyangya shakti us churanvale akinchitkar manushya ke aage choor choor hokar hi nahin rah jati? choor choor kyon, kaho pani pani.
to wo kya bal hai jo is tikhe vyangya ke aage hi ajey hi nahin rahta, balki mano us vyangya ki krurata ko hi pighla deta hai?
us bal ko naam jo do; par wo nishchay us tal ki vastu nahin hai jahan par sansari vaibhav phalta phulta hai. wo kuch apar jati ka tattv hai. log spirichual kahte hain; atmik, dharmik, naitik kahte hain. mujhe yogyata nahin ki main un shabdon mein antar dekhun aur pratipadan karun. mujhe shabd se sarokar nahin. main vidvan nahin ki shabdon par atkun. lekin itna to hai ki jahan trishna hai, bator rakhne ki spriha hai, vahan us bal ka beej nahin hai. balki yadi usi bal ko sachcha bal mankar baat ki jaye to kahna hoga ki sanchay ki trishna aur vaibhav ki chaah mein vyakti ki nirbalta hi prmanit hoti hai. nirbal hi dhan ki or jhukta hai. ye abalta hai. ye manushya par dhan ki aur chetan par jaD ki vijay hai.
ek baar churanvale bhagat ji bazar chauk mein deekh ge. mujhe dekhte hi unhonne jay jayram kiya. maine bhi jayram kaha. unki ankhen band nahin theen aur na us samay ye bazar ko kisi bhanti kos rahe malum hote the. raah mein bahut log, bahut balak mile jo bhagat ji dvara pahchane jane ke ichchhuk the. bhagat ji ne sabko hi hansakar pahchana. sabka abhivadan liya aur sabko abhivadan kiya. isse tanik bhi ye nahin kaha ja sakega ki chauk bazar mein hokar unki ankhen kisi se bhi kam khuli theen. lekin bhaunchakke ho rahne ki lachari unhen nahin thi. vyvahar mein pasopesh unhen nahin tha aur khoe se khaDe nahin wo rah jate the. bhanti bhanti ke baDhiya maal se chauk bhara paDa hai. us sabke prati apriti is bhagat ke man mein nahin hai. jaise us samuche maal ke prati bhi unke man mein ashirvad ho sakta hai. vidroh nahin, prasannata hi bhitar hai, kyonki koi rikt bhitar nahin hai. dekhta hoon ki khuli ankh tusht aur magn, wo chauk bazar mein se chalte chale jate hain. raah mein baDe baDe fainsi stor paDte hain, par paDe rah jate hain. kahin bhagat nahin rukte. rukte hain to ek chhoti pansari ki dukan par rukte hain. vahan do chaar apne kaam ki cheez leen aur chale aate hain. bazar se hathpurvak vimukhta unmen nahin hai; lekin agar unhen zira aur kala namak chahiye to sare chauk bazar ki satta unke liye tabhi tak hai, tabhi tak upyogi hai, jab tak vahan zira milta hai. zarurat bhar zira vahan se le liya ki phir sara chauk unke liye asani se nahin ke barabar ho jata hai. wo jante hain ki jo unhen chahiye wo hai zira namak. bas is nishchit pratiti ke bal par shesh sab chandni chauk ka amantran un par vyarth hokar bikhra rahta hai. chauk ki chandni dayen bayen bhukhi ki bhukhi phaili rah jati hai; kyonki bhagat ji ko zira chahiye wo to konevali pansari ki dukan se mil jata hai aur vahan se sahj bhaav mein le liya gaya hai. iske aage aas paas agar chandni bichhi rahti hai to baDi khushi se bichhi rahe, bhagat ji se bechari ka kalyan hi chahte hain.
yahan mujhe gyaat hota hai ki bazar ko sarthakta bhi vahi manushya deta hai jo janta hai ki wo kya chahta hai aur jo nahin jante ki ve kya chahte hain, apni parchezing pavar ke garv mein apne paise se keval ek vinashak shakti—shaitani shakti, vyangya ki shakti hi bazar ko dete hain. na to ve bazar se laabh utha sakte hain, na us bazar ko sachcha laabh de sakte hain. ve log bazar ka bazarupan baDhate hain. jiska matlab hai ki kapat baDhate hain. kapat ki baDhti ka arth paraspar mein sadbhav ki ghati. is sadbhav ke haas par adami aapas mein bhai bhai aur suhrid aur paDosi phir rah hi nahin jate hain aur aapas mein kore gahak aur bechak ki tarah vyvahar karte hain. mano donon ek dusre ko thagne ki ghaat mein hon. ek ki hani mein dusre ka apna laabh dikhta hai aur ye bazar ka, balki itihas ka; satya mana jata hai aise bazar ko beech mein lekar logon mein avashyaktaon ka adan pradan nahin hota; balki shoshan hone lagta hai tab kapat saphal hota hai, nishkapat shikar hota hai. aise bazar manavta ke liye viDambna hai aur jo aise bazar ka poshan karta hai, jo uska shaastr bana hua hai; wo arthshastr sarasar aundha hai wo mayavi shaastr hai wo arthshastr aniti shaastr hai.
ek baar ki baat kahta hoon. mitr bazar ge to the koi ek mamuli cheez lene par laute to ekdam bahut se banDal paas the.
mainne kaha—yah kyaa?
bole—yah jo saath theen.
unka ashay tha ki ye patni ki mahima hai. us mahima ka main qayal hoon. adikal se is vishay mein pati se patni ki hi pramukhta prmanit hai. aur ye vyaktitv ka parashn nahin, streetv ka parashn hai. stri maya na joDe, to kya main joDen? phir bhi sab sach hai aur wo ye ki is baat mein patni ki ot li jati hai. mool mein ek aur tatv ki mahima savishesh hai. wo tattv hai manibaig, arthat paise ki garmi ya enarji.
paisa pavar hai. par uske sabut mein aas paas maal taal na jama ho to kya wo khaak pavar hai! paise ko dekhne ke liye baink hisab dekhiye, par maal asbab makan kothi to andekhe bhi dikhte hain. paise ki us ‘parchezing pavar ke prayog mein hi pavar ka ras hai.
lekin nahin. log sanymi bhi hote hain ve fizul saman ko fizul samajhte hain. ve paisa bahate nahin hain aur buddhiman hote hain. buddhi aur sanyampurvak wo paise ko joDte jate hain, joDte jate hain. wo paise ki pavar ko itna nishchay samajhte hain ki uske prayog ki pariksha unhen darkar nahin hai. bas khud paise ke juDa hone par unka man garv se bhara phula rahta hai.
mainne kaha—yah kitna saman le aaye!
mitr ne samne manibaig phaila diya, kaha—yah dekhiye. sab uD gaya, ab jo rel tikat ke liye bhi bacha ho!
mainne tab tay mana ki aur paisa hota aur saman aata. wo saman zarurat ki taraf dekhkar nahin aaya apni parchezing pavar ke anupat mein aaya hai.
lekin thahariye. is silsile mein ek aur bhi mahattv ka tattv hai, jise nahin bhulna chahiye. uska bhi is kartab mein bahut kuch haath hai. wo mahattv hai, bazar.
mainne kaha—yah itna kuch nahaq le aaye!
mitr bole—kuchh na puchho. bazar hai ki shaitan ka jaal hai? aisa saja sajakar maal rakhte hain ki behaya hi ho jo na phanse.
mainne man mein kaha, theek. bazar amantrit karta hai ki aao mujhe luto aur luto. sab bhool jao, mujhe dekho. mera roop aur kiske liye hai? main tumhare liye hoon. nahin kuch chahte ho, to bhi dekhne mein kya haraz hai. aji aao bhi. is amantran mein ye khubi hai ki agrah nahin hai agrah tiraskar jagata hai. lekin uunche bazar ka amantran mook hota hai aur usse chaah jagti hai. chaah matlab abhav. chauk bazar mein khaDe hokar adami ko lagne lagta hai ki uske apne paas kafi nahin hai aur chahiye, aur chahiye. mere yahan kitna parimit hai aur yahan kitna atulit hai oh!
koi apne ko na jane to bazar ka ye chauk use kamna se vikal bana chhoDe. vikal kyon, pagal. asantosh, trishna aur iirshya se ghayal kar manushya ko sada ke liye ye bekar bana Daal sakta hai.
ek aur mitr ki baat hai. ye duphar ke pahle ke ge ge bazar se kahin shaam ko vapis aaye. aaye to khali haath!
mainne puchha—kahan rahen?
bole—bazar dekhte rahe.
mainne kaha—bazar ko dekhte kya rahe?
bole—kyon? bazar!
tab mainne kaha—laye to kuch nahin!
bole—han par ye samajh na aata tha ki na loon to kyaa? sabhi kuch to lene ko ji hota tha. kuch lene ka matlab tha shesh sab kuch ko chhoD dena. par main kuch bhi nahin chhoDna chahta tha. isse main kuch bhi nahin le saka.
mainne kaha—khub!
par mitr ki baat theek thi. agar theek pata nahin hai ki kya chahte ho to sab or ki chaah tumhein gher legi. aur tab parinam traas hi hoga, gati nahin hogi, na karm.
bazar mein ek jadu hai. wo jadu ankh ki raah kaam karta hai. wo roop ka jadu hai par jaise chumbak ka jadu lohe par hi chalta hai, vaise hi is jadu ki bhi maryada hai. jeb bhari ho, aur man khali ho, aisi haalat mein jadu ka asar khoob hota hai. jeb khali par man bhara na ho, to bhi jadu chal jayega. man khali hai to bazar ki anekanek chinzon ka nimantran us tak pahunch jayega. kahin hui us vaqt jeb bhari tab to phir wo man kiski manne vala hai! malum hota hai ye bhi loon, wo bhi loon. sabhi saman zaruri aur aram ko baDhane vala malum hota hai. par ye sab jadu ka asar hai. jadu ki savari utri ki pata chalta hai ki fainsi chinzon ki bahutayat aram mein madad nahin detin, balki khalal hi Dalti hai. thoDi der ko svabhiman ko zarur senk mil jata hai par isse abhiman ki gilti ki aur khurak hi milti hai. jakaD reshmi Dori ki ho to resham ke sparsh ke mulayam ke karan kya wo kam jakaD hogi?
par us jadu ki jakaD se bachne ka ek sidha sa upaay hai. wo ye ki bazar jao to khali man na ho. man khali ho, tab bazar na jao. kahte hain lu mein jana ho to pani pikar jana chahiye. pani bhitar ho, lu ka lupan vyarth ho jata hai. man lakshya mein bhara ho to bazar bhi phaila ka phaila hi rah jayega. tab wo ghaav bilkul nahin de sakega, balki kuch anand hi dega. tab bazar tumse kritarth hoga, kyonki tum kuch na kuch sachcha laabh use doge. bazar ki asli kritarthta hai avashyakta ke samay kaam aana.
yahan ek antar cheenh lena bahut zaruri hai. man khali nahin rahna chahiye, iska matlab ye nahin hai ki wo man band rahna chahiye. jo band ho jayega, wo shunya ho jayega. shunya hone ka adhikar bas parmatma ka hai jo sanatan bhaav se sampurn hai. shesh sab apurn hai. isse man band nahin rah sakta. sab ichchhaon ka nirodh kar loge, ye jhooth hai aur agar ichchhanirodhastpah ka aisa hi nakaratmak arth ho to ye tap jhooth hai. jaise tap ki raah registan ko jati hogi, moksh ki raah wo nahin hai. thaath dekar man ko band kar rakhna jaDta hai. lobh ka ye jitna nahin hai ki jahan lobh hota hai, yani man mein, vahan nakar ho! ye to lobh ki hi jeet hai aur adami ki haar. ankh apni phoD Dali, tab lobhaniy ke darshan se bache to kya hua? aise kya lobh mit jayega? aur kaun kahta hai ki ankh phutne par roop dikhana band ho jayega? kya ankh band karke hi hum sapne nahin lete hain? aur ve sapne kya chain bhang nahin karte hain? isse man ko band kar Dalne ki koshish to achchhi nahin. wo akarath hai ye to hathvala yog hai. shayad hath hi hath hai, yog nahin hai. isse man krish bhale ho jaye aur pila aur ashakt jaise vidvan ka gyaan. wo mukt aise nahin hota. isse wo vyapak ki jagah sankirn aur virat ki jagah kshudr hota hai. isliye uska rom rom mundakar band to man ko karna nahin chahiye. wo man poorn kab hai? hum mein purnta hoti to parmatma se abhinn hum mahashunya hi na hote? apurn hain, isi se hum hain. sachcha gyaan sada isi apurnta ke bodh ko hum mein gahra karta hai. sachcha karm sada is apurnta ki svikriti ke saath hota hai. atः upaay koi vahi ho sakta hai jo balat man ko rokne ko na kahe, jo man ko bhi isliye sune kyonki wo apryojniy roop mein hamein nahin praapt hua hai. haan, manmanepan ki chhoot man ko na ho, kyonki wo akhil ka ang hai, khud kul nahin hai.
paDos mein ek mahanubhav rahte hain jinko log bhagat ji kahte hain. churan bechte hain. ye kaam karte, jane unhen kitne baras ho ge hain. lekin kisi ek bhi din churan se unhonne chhः aane paise se zyada nahin kamaye. churan unka aas paas sarnam hai. aur khud khoob lokapriy hain. kahin vyavsay ka gur pakaD lete aur us par chalte to aaj khushhal kya malamal hote! kya kuch unke paas na hota! idhar das varshon se main dekh raha hoon, unka churan hathon haath bik jata hai. par wo na use thok dete hain, na vyapariyon ko bechte hain. peshgi arDar koi nahin lete. bandhe vaqt par apni churan ki peti lekar ghar se bahar hue nahin ki dekhte dekhte chhah aane ki kamai unki ho jati hai. log unka churan lene ko utsuk jo rahte hain. churan se bhi adhik shayad wo bhagat ji ke prati apni sadbhavana ka dey dene ko utsuk rahte hain. par chhah aane pure hue nahin ki bhagat ji baqi churan balkon ko muft baant dete hain. kabhi aisa nahin hua hai ki koi unhen pachchisvan paisa bhi de sake. kabhi churan mein laparvahi nahin hui hai, aur kabhi rog hota bhi mainne unhen nahin dekha hai.
aur to nahin, lekin itna mujhe nishchay malum hota hai ki in churanvale bhagat ji par bazar ka jadu nahin chal sakta.
kahin aap bhool na kar baithiyega. in panktiyon ko likhne vala main churan nahin bechta hoon. ji nahin, aisi halki baat bhi na sochiyega. ye samajhiyega ki lekh ke kisi bhi manya pathak se us churanvale ko shreshth batane ki main himmat kar sakta hoon. kya jane us bhole adami ko akshar gyaan tak bhi hai ya nahin. aur baDi baten to use malum kya hongi. aur hum aap na jane kitni baDi baDi baten jante hain. isse ye to ho sakta hai ki wo churanvala bhagat hum logon ke samne ekdam nachiz adami ho. lekin aap pathkon ki vidvan shreni ka sadasya hokar bhi main ye svikar nahin karna chahta hoon ki us apdarth prani ko wo praapt hai jo hum mein se bahut kam ko shayad praapt hai. us par bazar ka jadu vaar nahin kar pata. maal bichha rahta hai, aur uska man aDig rahta hai. paisa usse aage hokar bheekh tak mangta hai ki mujhe lo. lekin uske man mein paise par daya nahin samati. wo nirmam vyakti paise ko apne aahat garv mein bilakhta hi chhoD deta hai. aise adami ke aage kya paise ki vyangya shakti kuch bhi chalti hogi? kya wo shakti kunthit rahkar salajj hi na ho jati hogi?
paise ki vyangya shakti ki suniye. wo darun hai. main paidal chal raha hoon ki paas hi dhool uDati nikal gai motar. wo kya nikli mere kaleje ko kaundhti ek kathin vyangya ki leek hi aar se paar ho gai. jaise kisi ne ankhon mein ungli dekar dikha diya ho ki dekho, uska naam hai motar, aur tum usse vanchit ho! ye mujhe apni aisi viDambna malum hoti hai ki bas puchhiye nahin. main sochne ko ho aata hoon ki haay, ye hi maan baap rah ge the jinke yahan main janm lene ko tha! kyon na main motarvalon ke yahan hua! us vyangya mein itni shakti hai ki zara mein mujhe apne sagon ke prati kritaghn kar sakti hai.
lekin kya lokavaibhav ki ye vyangya shakti us churanvale akinchitkar manushya ke aage choor choor hokar hi nahin rah jati? choor choor kyon, kaho pani pani.
to wo kya bal hai jo is tikhe vyangya ke aage hi ajey hi nahin rahta, balki mano us vyangya ki krurata ko hi pighla deta hai?
us bal ko naam jo do; par wo nishchay us tal ki vastu nahin hai jahan par sansari vaibhav phalta phulta hai. wo kuch apar jati ka tattv hai. log spirichual kahte hain; atmik, dharmik, naitik kahte hain. mujhe yogyata nahin ki main un shabdon mein antar dekhun aur pratipadan karun. mujhe shabd se sarokar nahin. main vidvan nahin ki shabdon par atkun. lekin itna to hai ki jahan trishna hai, bator rakhne ki spriha hai, vahan us bal ka beej nahin hai. balki yadi usi bal ko sachcha bal mankar baat ki jaye to kahna hoga ki sanchay ki trishna aur vaibhav ki chaah mein vyakti ki nirbalta hi prmanit hoti hai. nirbal hi dhan ki or jhukta hai. ye abalta hai. ye manushya par dhan ki aur chetan par jaD ki vijay hai.
ek baar churanvale bhagat ji bazar chauk mein deekh ge. mujhe dekhte hi unhonne jay jayram kiya. maine bhi jayram kaha. unki ankhen band nahin theen aur na us samay ye bazar ko kisi bhanti kos rahe malum hote the. raah mein bahut log, bahut balak mile jo bhagat ji dvara pahchane jane ke ichchhuk the. bhagat ji ne sabko hi hansakar pahchana. sabka abhivadan liya aur sabko abhivadan kiya. isse tanik bhi ye nahin kaha ja sakega ki chauk bazar mein hokar unki ankhen kisi se bhi kam khuli theen. lekin bhaunchakke ho rahne ki lachari unhen nahin thi. vyvahar mein pasopesh unhen nahin tha aur khoe se khaDe nahin wo rah jate the. bhanti bhanti ke baDhiya maal se chauk bhara paDa hai. us sabke prati apriti is bhagat ke man mein nahin hai. jaise us samuche maal ke prati bhi unke man mein ashirvad ho sakta hai. vidroh nahin, prasannata hi bhitar hai, kyonki koi rikt bhitar nahin hai. dekhta hoon ki khuli ankh tusht aur magn, wo chauk bazar mein se chalte chale jate hain. raah mein baDe baDe fainsi stor paDte hain, par paDe rah jate hain. kahin bhagat nahin rukte. rukte hain to ek chhoti pansari ki dukan par rukte hain. vahan do chaar apne kaam ki cheez leen aur chale aate hain. bazar se hathpurvak vimukhta unmen nahin hai; lekin agar unhen zira aur kala namak chahiye to sare chauk bazar ki satta unke liye tabhi tak hai, tabhi tak upyogi hai, jab tak vahan zira milta hai. zarurat bhar zira vahan se le liya ki phir sara chauk unke liye asani se nahin ke barabar ho jata hai. wo jante hain ki jo unhen chahiye wo hai zira namak. bas is nishchit pratiti ke bal par shesh sab chandni chauk ka amantran un par vyarth hokar bikhra rahta hai. chauk ki chandni dayen bayen bhukhi ki bhukhi phaili rah jati hai; kyonki bhagat ji ko zira chahiye wo to konevali pansari ki dukan se mil jata hai aur vahan se sahj bhaav mein le liya gaya hai. iske aage aas paas agar chandni bichhi rahti hai to baDi khushi se bichhi rahe, bhagat ji se bechari ka kalyan hi chahte hain.
yahan mujhe gyaat hota hai ki bazar ko sarthakta bhi vahi manushya deta hai jo janta hai ki wo kya chahta hai aur jo nahin jante ki ve kya chahte hain, apni parchezing pavar ke garv mein apne paise se keval ek vinashak shakti—shaitani shakti, vyangya ki shakti hi bazar ko dete hain. na to ve bazar se laabh utha sakte hain, na us bazar ko sachcha laabh de sakte hain. ve log bazar ka bazarupan baDhate hain. jiska matlab hai ki kapat baDhate hain. kapat ki baDhti ka arth paraspar mein sadbhav ki ghati. is sadbhav ke haas par adami aapas mein bhai bhai aur suhrid aur paDosi phir rah hi nahin jate hain aur aapas mein kore gahak aur bechak ki tarah vyvahar karte hain. mano donon ek dusre ko thagne ki ghaat mein hon. ek ki hani mein dusre ka apna laabh dikhta hai aur ye bazar ka, balki itihas ka; satya mana jata hai aise bazar ko beech mein lekar logon mein avashyaktaon ka adan pradan nahin hota; balki shoshan hone lagta hai tab kapat saphal hota hai, nishkapat shikar hota hai. aise bazar manavta ke liye viDambna hai aur jo aise bazar ka poshan karta hai, jo uska shaastr bana hua hai; wo arthshastr sarasar aundha hai wo mayavi shaastr hai wo arthshastr aniti shaastr hai.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।